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मताका सिंह विरहाउ पज्बुण्णचरिउ
[15.25.14
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चउभासहिमि धुह विरयंतउ
पय पणवंतउ। तुहु कम्मारि हत्थि कंठीरुज
देव देउ तव भर धरु धीरउ। तुहुँ जि कामु पइँ कामु णिसुभिउ माणु विसयग्नि पडंतु णिरंभिउ।
सल्ल समुवि सल्लत्तउ मोडिउ सिव-णयरिहे कवाडु पइँ फेडिउ । घत्ता— तुहुँ गाण-दिवायरु धुणेवि तमु उज्जोइउ भुषणत्तउ। विविसाविय भव्व-कमल-णिवहु धम्म-महारह-जुत्तउ ।। 305 ।।
(26) दुवई— सुर-असुरेहि खयर-णर णियरहिं पणमिय भत्ति भारेणं ।
णाणुप्पत्ति पुज्ज कय णाणिहिं अइ बहुविह पयारिणं ।। छ।। सह-फरिस वहुत्त वायारउ गंध-वण्ण भेसहि सवियार। पवणत्तय वलएहिमि धरियउ दव्व-जीव पुग्गलहिमि भरियऊ । पविमलेण सयलामल णाण' तिहुवणु एक्कु खंधु फुडु जाण । पिंडत्थु वि पयत्यु णउत्तउ वि घेउ न तासु विकिपि अत्तउवि । सुहुम किरिउ णामेण णिरंजणु तइयउ सुक्क वि झायइ पुणु।
चतुर्निकाय देवों ने उनकी स्तुति की। सुरेश्वर ने प्रभु के चरणों में प्रणाम कर स्तुति प्रारम्भ की—“हे देव, आप कर्मरूपी हाथी के लिए कंठीरव हैं। आप हमें तप का भार धारण करने का धैर्य प्रदान करें। हे देव, यद्यपि आप कामदेव हैं तो भी आपने काम-वासना का दमन किया है और अपने विषयाग्नि में पड़े हुए मन को उससे दर किया है। शल्य के समान होने पर भी तीनों शल्यों को तोड-मरोड डाला है और इस प्रकार आपने शिव-नगरी के कपाटों को खोल लिया है। पत्ता- आप ज्ञान दिवाकर हैं, अज्ञानरूपी अन्धकार को धुनकर आपने भुवनत्रय को उद्योतित किया है। धर्मरूपी महारथ से युक्त आपने हे प्रभु, भव्य कमलों को विकसित किया है।। 305 ।।
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कैवल्य-प्राप्ति के बाद प्रद्युम्न की अवस्था द्विपदी- सुरों, असुरों, विद्याधरों एवं मनुष्यों ने अत्यन्त भक्ति-भावपूर्वक प्रद्युम्न के केवलज्ञान-कल्याणक की
पूजा की और विविध प्रकार से उस ज्ञानी प्रद्युम्न के प्रति आदर व्यक्त किया।। छ।। यह संसार शब्द, स्पर्श, विविध वातारत गन्ध विविध भेद वाले वर्षों से युक्त तथा त्रिविध पवनों के वलयों पर आधारित है। उसमें द्रव्यजीव एवं पुद्गल भरे हुए हैं। अत्यन्त विमल ... केवलज्ञान के द्वारा (केवली) समस्त संसार के पदार्थों को यथावत् जानता है। यह त्रिभुवन के एक-एक स्कन्ध को स्पष्ट रूप से जानता है। पिण्डस्य एवं पदस्थ जो ध्यान कहे गये हैं. उनके द्वारा भी पदार्थों के जानने में किसी प्रकार का सन्देह नहीं रहता पुनः निरंजन सूक्ष्म क्रिया नामक तीसरे शुक्लध्यान का ध्यान किया। उस ज्ञानी ने विषम कर्मों को भी सम करके