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15.25.13]
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महाक सिंह विरइज पज्जुण्याचरिउ
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दुवई णाणावरण पंच च दंसणवरणाणतरायया ।
पंच वि अंतरम्य झाणाणले विहुणिय भष्फ जायया । 1 छ ।।
दह छत्तीस एक्क तह सोलवि
थिउ अप्पा सत्तवे संलीणउ थक्क उवड्ढि म गुण णह - केसह कम्म घिडेवि झति खणें किह पुण्ण पाव भूमिउ परिसेसिवि अमणु अणिदिउ मुणि संपणिउँ ता घाइय सुर कहिंमि ण माझ्य घणएँ गुरु-भत्तिए वेउव्विउ कमलासणु मणिगण विष्फुरियउ चमर जमलु णीहारुहो सणिहु हुअउ पहुत्तणु किं अक्खिज्जइ
एय तिसठि पयड़ि उम्मूलवि । धाउ विहु देहुत्थु वि झीणउ । पुव्व सहाएँ णास पसहँ । वालु व हमउ वलहँ भित्तिहि जिह । तुरिउ सजोइ ठाणें आवासिवि । केवल - णाणु विमलु उफणउँ । जय जय जय पभणति पराइय । जोयण माणु सहा मंडउ किउ । एक छत्तु ससि समु उद्धरियउ । मुंड केवली एवंविहु | जडमइणा मइ किह लक्खिज्जइ ।
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प्रद्युम्न को केवलज्ञान प्राप्त हो गया । इन्द्र ने भाव-विभोर होकर उनकी स्तुति की
द्विपदी ---- ज्ञानावरण की 5 (पांच), दर्शनावरण की 4 (चार), अन्तराय की 5 (पांच), इन्हें तथा अन्तराय को ध्यानाग्नि में विधुनित कर ( यह जीव ) शुद्धान्त बन जाता है । । । छ । ।
10 (दस), 36 (छत्तीस ) 1 (एक) तथा 16 ( सोलह ) - इन 63 (त्रेषठ ) प्रकृतियों का उन्मूलन कर अपने को आत्मा में सल्लीन न कर देह के धातु समूह को कृश कर दिया । उर्ध्वगामी गुणों में स्थिर रहे, नख एवं केश की वृद्धि रुक गयी, पूर्व भेदों के आश्रित रहकर कर्मप्रदेशों को नष्ट किया। कर्म - समूह क्षण-क्षण में किस प्रकार झड़ते रहें? उसी प्रकार जिस प्रकार बालु की भित्ति जल-प्रवाह में बहती रहती है। वह प्रद्युम्न पुण्य-पाप की भूमि को सुखा कर तुरन्त ही सयोग केवली गुणस्थान में चला गया। पुनः उसे मनारहित अनिन्द्य ( अयोगकेवली) गुणस्थान में विमल केवलज्ञान उत्पन्न हो गया।
तभी जय-जयकार करते हुए देवगण वहाँ दौड़े आये । (उनकी इतनी ) अधिक संख्या थी ( कि) वे वहाँ कहीं भी समाये नहीं। वे गुरु भक्ति से भर उठे। उन्होंने एक योजन- प्रमाण सभा - मण्डप ( समवशरण ) की रचना की। मणि-समूह से स्फुरायमान कमलासन बनाया, उस पर चन्द्रमा के समान एक छत्र बनाया, उसके समीप ही केवल प्रभु के मस्तक के आगे नीहारिका के समान चंवर युगल दुराये। उसके प्रभुत्व को कैसे कहा जाये ? मुझ जड़मति के द्वारा उसे कैसे लिखा जाये ?