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________________ 338] महाकद सिंह विराज पक्षुण्णचरित 115.24.11 निद्दा-निद्दा-निद्द पयल-पपलाइय धाण गिद्धि संजु असंछेइय। णरय-तिरिय गइवे पुविहिं खड एइंदिय वे इंदिय सह कउ। आतउ उज्जोउ वि थावरु थिन साहारणु सुहु मेण समउ जिउ । भाइ दुइज्जए सुअउमाणउँ पच्चक्खाणु अपच्चक्लाणउँ। कोहु-लोहु माणु वि माया निरु खविउ नउं सयवेउ तइए णिरु । थी-वैउ वि चउत्यि संघारेवि पुणु पंचमे मणु झाणे पेरवि। हास-रइ अरइ भउ मोउ वि जुगुप्सा उडु पयडिहिं छेउ वि। किउ छट्ठए पुंवेउ णिरंसउ सत्तमे सुभाएसु असंसउ। मुक्क कोहु संजलणु मुणिदें अटूटमेसु बंदारय वंदें। णिज्जासियउ मामु अनिर सोसिउ नवमे वि भायासरु। इयाए कम्म-पयडि विणिवायवि सुहुम-संपराय तणु पाविवि । सुहुमु लोहु चूरिव किउ धुण्णुवि णिविसें जोईसरु पज्जण्णु वि। उवसमपए आवासु करेविणु हरि संगाइमि दूरि चएविणु। उवसमेण उवसमि कसायउ कयय हलेण जलुव जिह जायउ। भवा-भाव असेस हरेविणु किर अच्छइ खीण महिसरे विणु। ताम झाणु संभविउ दुइज्जउ एकत्त वियक्कु वि निरवजउ । यत्ता--- खवय तह थाणद्धि णिंद पयल संथट्टिय । चउदह पयडिउ झत्ति वीए भाए आवटिय ।। 304 ।। प्रचला, प्रचला-प्रचला, स्तयानगृद्धि, संज्वलन कषाय, असंवेदनीय, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय गति के साथ नरक, तिर्यंच, गतियाँ पूर्व में ही क्षयकर, आतप, उद्योत, स्थावर के साथ साधारण एवं सूक्ष्म को स्थिर कर दूसरे भाग में भटककर प्रत्यख्यान एवं अप्रत्याख्यान क्रोध, लोभ, मान एवं माया कषायों का क्षयकर तीसरे में सातावेदनीय तथा चौथे में स्त्रीवेद का संहार कर पांचवें में मन में ध्यान की प्रेरणा से हास्य, रति-अरति, भय, शोक, जुगुप्सा नामकी प्रकृतियों को छेदकर, छठवें में पुवेद का निरसन कर सातवें भाग में अप्रशस्त प्रकृति को नष्टकर भव्यों द्वारा वन्दनीय उस मुनीन्द्र ने संज्वलन क्रोध को नष्ट किया, आठवें में अत्यन्त निष्ठुर मान-कषाय का निरसन कर नौवें में मायाशर को शुष्क बनाया। इन कर्म-प्रकृतियों को विनष्ट करके सूक्ष्म साम्पराय नामक गुणस्थान को प्राप्त किया। वहाँ योगीश्वर प्रद्युम्न ने निमिषमात्र में सूक्ष्म लोभ कषाय को चूर-चूर कर दिया। उपशान्तपद में निवास कर इन्द्रिय-वासनाओं को दूर से ही छोड़कर उपशान्त मन से गन्दे जल में कतक-फल के समान ही कषाय का उपशमन किया। अशेष भवावलि को दूरकर वह महीश्वर प्रद्युम्न क्षीण-काय हो गया। तभी उसे दूसरा निर्दोष एकत्व-वितर्क नामक शुक्ल ध्यान उत्पन्न हो गया। घत्ता- स्त्यानगृद्धि का क्षयकर निद्रा एवं प्रचला को रोककर उसने दूसरे भाग में 14 प्रकृतियों को नष्ट कर डाला।। 304।।
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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