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मलाकर सिंह विरह पञ्जूषणरित
सैनिकों की गर्वोक्तियाँ
युद्ध के साथ-साथ कृष्ण और शिशुपाल, मधु और भीम एवं कृष्ण तथा प्रद्युम्न की युद्ध के बीच परस्पर गर्वोक्तियाँ वीर-रस से ओत-प्रोत हैं -
बुच्चइ जाहि-जाहि मा पइसहि जममुह कुहर दुद्धरे। तुएँ सिमपाल काल सद्धोसि किं जाहि अहिण्ण कंधरे।। -208/2)
अह संकहि तो दडहि गहतरे महु पडिखलइ को भरह अंतर। -(6/14/3) उपहास- जा जाइब जीवहि अँजिसुहु इय उवहसियउ असहंतु दुहु।। -4139111)
युद्ध वर्णन में वीर-रस के स्थायी-भाव उत्साह, आलम्बन, उद्दीपन, अनुभाव एवं संचारी भावों का सुन्दर निरूपण हुआ है। वस्त्रों की खनखनाहट एवं हाथी-घोड़ों के चिंघाड़ने तथा हिनहिनाने का भी कवि ने सजीव चित्रण प्रस्तुत किया है।
रौद्र-रस:- स्वाय-विरुद्ध, अनिष्ट अथदा अपमान की स्थिति में उत्पन्न क्रोध के कारण रौद्र-रस की व्यंजना होती है। सत्यभामा के आदर एवं सम्मान न करने पर जब नारद कृष्ण के लिए दूसरी कन्या की खोज में निकलते हैं तब क्रोधित होकर वे इस प्रकार कहते हैं
वयं णच्चिमो जो अवज्जंत तूरो। ण णच्चामि किं वज्जिए सोअ तूरो। -2010) धूमकेतु दैत्य अपने पूर्वजन्म के बैरी मधुराजा को प्रद्युम्न के रूप में प्राप्त कर क्रोध में आग बबूला हो जाता है। यथा- वियारिऊण किंतु णहमि सारमि विचिंतणसिंदु वइरु सारमि।
किं घिमि उवहिमों वाडवे। पयंडमच्छ सुंसुमार फाडवे ।। -(4/1/12-13) यहाँ प्रद्युम्न आलम्बन और धुमकेतु आश्रय है। प्रद्युम्न का शैशव रूप में दिखलाई पड़ना उसका उद्दीपन विभाव है। पत्नी के अपहरण का स्मरण अनुभाव है। आमर्ष, उग्रता आदि संचारी भाव हैं। __ इसी रस के अन्य प्रसंगों में सत्यभामा एवं रुक्मिणी (14/2/2-5), मधु राजा (6/16, 6/19) एवं कुण्डिनपुर नरेश रूपकुमार (14/21/11-12) आदि के रौद्र-रूप भी द्रष्टव्य हैं। एक अन्य प्रसंग में कवि ने रौद्र-रस की तुलना समुद्र से की है (6/13:12, /14/4)। इस कल्पना में कवि की मौलिक सूझ-बूझ का पता चलता है।
भयानक-रस:- भयकारी दृश्यों के दर्शन, श्रवग एवं स्मरण से अथवा प्रतीति से उत्पन्न भय भयानक-रस की व्यंजना कराता है अथवा वीर और रौद्र-रसों के पोषक-तत्वों से भयानक-रस की उत्पत्ति होती है। पच० में रणस्थली के वर्णन-प्रसंगों में भयानक-रस के अनेक प्रसंग आये हैं। यथा 2117,2/18, 6/13/9 तथा 13/5171 किन्तु उनमें भी बह प्रसंग प्रमुख है, जिसमें प्रद्युम्न अपनी विद्या के द्वारा सिंह का भयानक रूप धारण कर बलदेव के साथ युद्ध करता है. जिसे देखकर वहाँ उपस्थित समग्र जन-समुदाय भयभीत हो उठता है तथा बलदेव भी हताश होकर वहीं मूर्छित हो जाते हैं (12/20/8-10, 12/21/1-8)।
इन सन्दर्भो में विभावादि से पुष्ट भय स्थायी भाव की भयानक-रस में व्यंजना हुई है।
वीभत्स-रस:- रुधिर, अस्थि, मांस, मज्जा, मल-मूत्र जैसी घृण्य-वस्तुओं के दर्शन, श्रवण अथवा स्मरण से उत्पन्न घणा से बीभत्स-रस की व्यंजना होती है। यौवनोन्मत्ता महिलाओं के पीन-पयोधर, सुपुष्ट जंघाएं एवं गर्वोन्मत्त हाव-भाव, शृंगार-रस के उद्दीपक हो सकते हैं, किन्तु वैराग्यावस्था में वे ही अंग एवं हाव-भाव घृणित प्रतीत होकर वीभत्स-रस की प्रतीति कराने लगते हैं। इन दृश्यों से संसार की अनित्यता का भान होता है और