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________________ 336] महाकह सिंह विरइज पन्जुण्णचरित [15.23.10 वज्जिय घर पुरवर आवासह विरइय गिरि-मसाण-गि रिवासहँ । पिट्ठाणिठ्ठिय सील सहायउ सेवहिं पंचवीस घय माइउ। दंसिय सोय" - महातरु भंगहँ जल्ल-मलावलित्त सव्वंगहँ। दीहर"तर मंसुहु णह केसहँ उवर) पयोहरद्ध णिद्देसहँ। कडयांत वद्ध िकरालह णिय रुवएं भेसिय कंकाल है। बिरहुय जीवहँ अभय पदाणइँ णिवसहि गोदुह) कय गो थाणईं। मय पउम” चावहिं गय सोहिं वज्जासण11) पिंडीकय पिंडहिं । लंविय-कर आत्तावण-जोय. मेणं ण धरति भुत्त चिरु भोय. । गिंभयाले गिरि-सिर-रवियक्खर12) विसहहिं अचत'" वएण दिअंवर । वरिसालेसु विवि तले संठिया सासयपुरहो सुटछु उक्कंठिया । गडयडंत जलयर जल-धारहिं कट्ठोवम कय तणु अविचारहिं । विज्जु-दंडु चमक्कु न लेक्सहि सिसिरे चउपहे थिय चउ पक्खहि । देहि पडावंतहिं हिम-पडलहिं फेडिय मेहमपाड़ा-ण मालहिं । 20 से रहित पाँच महाव्रतों की 25 भावनाएँ भाते रहते थे। घरों तथा नगरों के उत्तम आवासों को छोड़कर पर्वत, श्मशान एवं पर्वतों की गुफा-कंदराओं आदि में वास करते थे। निष्टानिष्ट में सदाशील गुण के सहायक थे। महाव्रतों की 25 धर्म भावनाओं का सेवन करते थे। सम्यग्दर्शन द्वारा शोक रूपी महावृक्ष का भंग करते थे। उनका सर्वांग शरीर जल्ल (पसीना) मल (धूल, मिट्टी) से अवलिप्त रहता था, दाढ़ी, मूंछ, नख एवं केश दीर्घतर हो गये थे। उदर और छाती का आधा भाग संकुचित हो गया था। शरीर की बंधी हुई हड्डियाँ (शीत के कारण) कटकटाती रहती थीं और इस प्रकार वे अपने भयानक रूप से कंकालों को भी इराते रहते थे। समस्त जीवों को अभय प्रदान करते थे, गो-दोहन के आसन से गोस्थान में बैठते थे (निवास करते थे)। हाथी सूंड के समान भुजाओं तथा पिण्डीकृत शरीर से वे मृतकासन, पद्मासन, धनुषासन एवं वज्रासन लगाकर ध्यान करते थे। हाथ-लम्बे कर आतापन योग से अतीत कालीन भोगों का स्मरण छोड़कर मन से मन को वश में करते थे (मन में चिरकाल से भोगे हए भोगों का ध्यान नहीं करते थे)। ___ ग्रीष्म-काल में दिगम्बर रूप से अचल रहते हुए वे यति-गण पर्वत-शिखर पर सूर्य की प्रखर किरणों को सहते रहते थे। वर्षाकाल में शाश्वतपुरी—मोक्षनगरी के लिए उत्कण्ठित वे यति-गण विटप (वृक्ष) तल में संस्थित होते थे। गड़गड़ाते हुए मेघों की जलधारा का विचार किये बिना ही अपने शरीर को काष्ठ के समान बनाये रहते थे। बिजली दण्ड की चमक को भी कुछ नहीं गिनते थे। शिशिर-काल के चारों पखवारों में वे (खुली) चौमुहानी पर बैठते थे। वह अपनी देह पर हिम-पटल गिरवाते रहते थे और इस प्रकार वे अपने मोह रूपी महान् घने-पटल को नष्ट करते थे। वे श्रद्धावान अनुप्रेक्षाओं का चिन्तन करते थे। वे रत्नत्रय से सुशोभित ऐसे प्रतीत होते थे (23) 3. अ. मासण। 4. अ. वाधीसह । (23) (2) एक- एक प्रस्प पध-भावना पंच महातस्प। 13) कक्ष्यः । (4) कूटनो आवृद्धिता। (5) हृदय। १6) साई। (7) गोअसन् । (8) पडयसन। () पदमासना (10) धनुषास्ना (010 बज्रासन (12) सूर्यकिरणा-1113) शरीरेण।
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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