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महाकद सिंह दिइउ पज्जण्णचरित
[15.21.19
घत्ता— ताम विणास भएण कंसारहि" पणवेप्पिणु । गय जे जहिं जीवंति सपण कुडवइँ लेविणु।। 301 ।।
(22) दुवई- दिक्खावच्छ णियवि णिय तणयहँ चेलंचल-विवज्जिया।
महएवीहिं सेय-वत्था वि थण वट्टेहि सज्जिया ।। छ ।। सल्लिउ दुक्खइँ सारंगपाणि सिढिलिय तणु मुह णिग्गइ ण वाणि । किर पावेसइ पंचत्तु सरिउ मुच्छाए चउभुव जीउ धरिउ। विज्जिउ चमरहिं सिंचिउ जलेण कह कहव सइत्त किउ बलेण । वंदिवि जिणु 'मणहरु दुरिय हारि पज्जुण्णु पमुह जइ णियम धारि । णीहरियउ लेविणु पुहुई पालु वारमह-पराइउ कामपालु। धय-छत्त-चमर सिग्गिरि सणाहु पेरिय रह-हय-गय चक्कणाहु । सोलह-सहसाहँ महाणिवाह पणमंतहँ पहु विरइय सिवाह। उत्तर- योग की मणिमय सु जच्च कलहोयली"। सहसत्त. रयणहँ सुहु अणेउ अणुहवई पिहिमि सिरि वासुएउ ।
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पत्ता- तब विनाश के भय से कंसारि (कृष्ण) उन नेमिप्रभु को प्रणामकर अपने स्वजनों एवं कुटुम्बी जनों
को लेकर वहाँ चले गये जहाँ जीवित रह सकें।। 301 ।।
(22) दीक्षा के बाद अपने संध सहित वह प्रद्युम्न द्वारावती पहुँचा द्विपदी- दीक्षावस्था में अपने वस्त्र-विदर्जित पुत्रों को देखकर वे (सत्य-भामा आदि) महादेवियाँ भी श्वेत वस्त्र
से सज्जित होकर वहीं (प्रद्युम्न के पास) रहने लगीं। ।। छ।। शारंगपाणि (कृष्ण) को दुःख साल गया। उनका शरीर शिथिल हो गया। उनके मुख से वाणी ही नहीं निकलती थी। (उस प्रद्युम्न का स्मरण कर) अब (कृष्ण) निश्चय ही मरण पावेंगे, ऐसा प्रतीत होता था। जब चतुर्भुज मूर्छित हो गये, तब बलदेव ने चमर डुला कर जल के छीटें देकर जिस किसी प्रकार बड़ी कठिनाई से उन्हें सचेत किया। पापों का हरण करने वाले मनोहर यति-नियमधारियों में प्रमुख नेमिप्रभु को प्रणाम कर वह पृथिवीपाल— कामपाल—प्रद्युम्न वहाँ से निकला और संघ को लेकर द्वारामती पहुँचा। उस समय वहाँ ध्वजा, छत्र, चमर तथा सिंहासन सहित रथ, घोड़े, हाथी लेकर तथा सोलह हजार प्रणाम करने वाले महानृपतियों का प्रभु और सभी प्रजाजनों को सुख देने वाला वह चक्रनाभ मणि खचित उत्तम जाति के स्वर्ण से निर्मित दैदीप्यमान सिंहासन पर बैठा था। सप्त रत्नों से युक्त वह श्री वासुदेव पृथिवी मण्डल पर अनेक सुखों का अनुभव कर रहा था।
(21) (9) नारायणस्प। (22) (9) सचेतः । (2) सौख्यं । (3) जतिस्वर्ण।
(22) 1. अ.11 2. अ. पवर। 3.
विनिह ।