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________________ 15.21.18] महाफइ सिंह घिराउ पञ्जण्णचरित [333 भो-भो चक्कपाणि लहु मेल्लहिं ध] ते जे तक्यरण मंडिय एहु केवलि अंतिम वउसारउ एमहि णउ वारिउ थक्कइँ पइँ संबोहेदि सयल हरिणासह सहसक्वेण" पयंपिड एही भणु संभवइ कासु एहउ सुउ कवणु एम कुल-लच्छि चएविणु एत्तहँ कय जीवय कारुण्णउ सहं संबुए-अणिरुद्ध कुमार. हरि सुव अणुगामिय ससिवयणहँ णिय-णिय अंगुभवहँ सणेहें सच्चहाम-रूदिणि सिय सेविहिं गहियउ वउ रायमइ णवेविणु करमि अलिउ जिण वयण सरंतउ विहुणंतउ णिय-भुव-जुव तणु-सिरु आउ-जाहु परिवयणु म वोल्लहिं । इयर कसाय-पिसायहिं खंडिय। अवसु हवेसइ तव-धुर धारउ।। पि-पुत्तक्कमु सुउ भासिउ म.। रुविणि मंडए मोयाविय दुहु। अण्ण ण तिय दीसह पइँ जेहीं। दिक्करि-कर-परिह'ग्गल-सम भुउ । साहइ णियमणु चवलु घरेविणु। भयणइँ मुणि-चरित्तु पडिवण्णउ । भाणु-सुभाणु पह हय-मारईं। दिक्खिय सत्तसयइँ णिव तणयहँ। परिसेसिय पिय घरणि ण मोहें। सुण्हहें समऊ अट्ठ-महएविहिं । भिण्णु सरीरु जीउ मण्णेविषु । दीवायणु पब्बइउ तुरंतउ। जरयकुमारहँ किउ देसंतरु । 15 भी चक्रपाणि, (इस प्रद्युम्न को—) शीघ्र (ही) छोड़ो। (यहाँ) आओ-जाओ किन्तु (प्रद्युम्न को रोकने सम्बन्धी) वचन मत बोलो। वे धन्य हैं, जो तपश्चरण से मण्डित हैं। अन्य जो तप रहित हैं वे कषाय-पिशाच से खण्डित हैं । तप धुरा का धारक तथा व्रतसार यह प्रद्युम्न अन्तिम केवली अवश्य होगा। अब आप इसको रोक नहीं सकते। मैं ठीक ही कहता हूँ कि अब पिता-पुत्र के क्रम को छोड़ो। हरि के साथ सभी को सम्बोधित कर रूपिणी का दुःख मिटाकर इन्द्र ने इस प्रकार कहा-"आप जैसी महिला अन्य नहीं दिखायी देती। बोलो—"ऐसा पुत्र किसका हो सकता है? जिसकी दिग्गज की सूंड के समान भुजाएँ हों। (इस संसार में) कौन ऐसा है जो कुल-लक्ष्मी को त्याग कर अपने चंचल मन को रोककर साधना करेगा? इसी समय उस प्रद्युम्न ने जीवों पर करुणा-भाव धारण कर शम्बुकुमार, अनिरुद्धकुमार, भानुकुमार एवं अपनी प्रभा से कामदेव को तिरस्कृत करने वाले सुभानुकुमार आदि तथा हरिपुत्र उस प्रद्युम्न के अनुगामी एवं चन्द्रमा के समान मुख वाले अन्य 700 नृप-पुत्रों के साथ उसने दीक्षा ले ली और मुनि-चरित स्वीकार कर लिया। अपनी लक्ष्मी सेवी बहुओं के साथ सत्यभामा एवं रूमिणी आदि आठ महादेवियों ने भी राजीमती को नमस्कार कर तथा आत्मा एवं शरीर को भिन्न मानकर व्रत ग्रहण कर लिये । द्वीपायन ने भी जिन-वचनों का स्मरण कर कि "मैं जिन वचनों को मिथ्या सिद्ध करूँगा।" तुरन्त दीक्षित हो गया। अपने भुजायुगल, शरीर और सिर को धुनते हुए जयकुमार ने भी देशान्तर को प्रयाण किया। (21) | अ. 'हि"। (21) (6) पितापुत्राम। 1) इन्द्रंग । १४) कथय ।
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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