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15.20.91
महाकइ सिंह विरइउ पज्जुण्णचरिउ
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सोएण पयट्टइ अट्टझाणु उहट्टइ मणुवहो विमलणाणु।
विणु णाणे णउ सिवगइ लहेइ संसार महण्णवे दुहु सहेइ । घत्ता-- इय चिंतिवि णिच्छउ करेवि मणे पणवेवि पंकय प्रणाहु खणे। वलएवएँ सहुं भीसम-सुयइँ जंपइ जामि तवोवणे ।। 299 ।।
(20) दुवई- किज्जउ महो पसाउ आमेल्लहु एमहिं सल्ल संगहँ ।
संघारमि असेस कम्मारिसु माणमि सिवउरे सुहँ।। छ।। दुल्लहु भुवणे जं जि तं लद्धउ तुम्हँ पयहँ पसाएँ सिद्ध। संसारिउ सुहु विलसिउ सुंदर जं पावइ सहरु ण पुरंदरु। ताय-ताय अभच्छिउ किज्जइ देवा एस दाणु लहु दिज्जइ। किय अवराह अणेय अयारणे तोहं पसण्ण भाव-भाव हो मणे । समहु सयलु मइँ खमि तिलोयहो गहियउ णियमु परिगहु भोयहो। ता णिय-तणय दुहइँ अहरीणा खणे रूविणि ससिलेह व झीणा। णंदण-णेहाउलउ सवच्छलु वाह पवाहइँ धुवइ उरत्थलु।
जाता है। बिना ज्ञान के शिवगति नहीं मिलती और संसार-समुद्र में दुःख पाता रहता है। पत्ता- ऐसा विचारकर क्षण भर में ही अपने मन में निश्चयकर तथा पद्मनाभ को प्रणाम कर बलदेव सहित रूपिणी से उस प्रद्युम्न ने कहा कि-"मैं तो तपोवन को जाता हूँ।" ।। 299 ।।
(20)
प्रद्युम्न नेमिप्रभु से दीक्षा ले लेता है द्विपदी- प्रद्युम्न ने नेमिप्रभु से कहा—"मुझ पर कृपा कीजिए और इस प्रकार मेरे शल्य को दूर कीजिए। अब
मैं समस्त कर्मशत्रुओं का संहार करूँगा तथा शिवपुर के सुखों को मानूँगा (भोगूंगा)1" || छ।। ____"भुवन में जो कुछ भी दुर्लभ है, वे सब मैंने प्राप्त किये हैं और आपके चरणों की कृपा से वे सभी सिद्ध हुए हैं। ऐसे-ऐसे सुन्दर सांसारिक सुखों को भोग लिया है जो अप्सराओं वाले इन्द्रों को भी उपलब्ध नहीं है। हे तात, हे तात, मेरे इच्छित को कीजिए, हे देव, शीघ्र ही आदेश-दान दीजिए। अज्ञान के कारण यद्यपि मैंने अनेक अपराध किये हैं, तो भी प्रशान्त भाव से (वैराग्य का) विचारकर मैं मन में प्रसन्न हूँ। सभी प्राणी मुझे क्षमा करें। मैंने भी त्रैलोक्य के प्राणियों को क्षमा कर दिया है। और (अब) परिग्रह-भोग का नियम ग्रहण कर लिया है।
अपने पुत्र के दुःख से अत्यन्त खिन्न हुई रूपिणी क्षण भर में ही चन्द्रकला के समान अत्यन्त क्षीण हो गयी। पुत्र के स्नेह से आकुल, वात्सल्य-भाव से युक्त, वह (रूपिणी) वाष्प (अश्रु) प्रवाह से उर-स्थल को धोने लगी।
(199(3) नारायणस्य बन्द्रेिण।