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________________ 330] महाकद सिंह यिरइज पजुण्णचरित [15.19.1 (19) दुवई पुरिवारमइ पवर-सुर-वल्लह ही रिद्धि कण्हहो। णं देसइ अविग्घ आहासहि जयसिरि समरे तण्हहो।। छ ।। भो तिक्खंडा हिव सामि साल भासइ जिणु णिसुणहि कामपाल । दह-अट्ठकोडि कुल जायबाहँ सुकुमालहँ णं णव-पल्लवाहँ। मह "राएँ पावेसहि विणासु दीवायणंगि शयरी-विणासु। उव्वरिसहुँ तुम्हहँ वेबि राय चुक्कइ णमहारी दिव्व-बाय । अवरु वि हरिणिय असिधेणु वाइँ खउ होसइ आउ पमाणु जाइँ। हत्थेण जरयकुमरहो तणेण एहउ जगु मा मुज्झहि मणेण । दीसंति ण थिर दिणयर मयंक सुर-फणिवइ मणे मरण संक। कुलयर-जिणवर-चक्केसराहँ हरि-पडिहरि-हलहि-खोसराहँ । उप्पण्ण जे गय इह अइवलाहँ को सक्कइ संख करेवि ताहँ। ता जाणिवि चल संसार गइ वइराए पइट्ठिय मयणभइ। पवियप्पइ सुह-दुह दोर-खद्ध आसा वस कालइँ केण खद्ध । किं रज्जइँ सुहयविउउ जत्थु पाविज्जइ सोउ महंतु तेत्थु। in (19) ___ द्वारिका-विनाश सम्बन्धी भविष्यवाणी तथा प्रद्युम्न का वैराग्य द्विपदी- देवों के लिए अत्यन्त प्रिय कृष्ण की उत्तमपुरी द्वारिका ऋद्धि-सिद्धि से समृद्ध थी। मानों कह रही हो कि तृष्णा के साथ किये गये युद्ध में जयश्री निर्विघ्न रूप से मिलेगी।। छ।। हे महान् त्रिखंडाधिपते, हे स्वामिन, हे कामपाल सुनो। जिनेन्द्र कहते हैं कि, नव-पत्रों के समान सुकुमार यादवों के 18 करोड़ कुल मदिरा-पान से विनाश को प्राप्त होंगे। (मुनि...) द्वीपायन द्वारा नगरी का विनाश होगा। हे राजन, तुम सब में से तुम दो ही बचोगे। हमारी यह दिन्य-वाणी (भविष्यवाणी) नहीं चूकेगी। और भी सुनो कि हरि के अपने असि, धेनु आदि भी नष्ट हो जायेंगे। हरि का आयु प्रमाण भी जरदकुमार के हाथ से क्षय को प्राप्त होगा। अत: इस जगत में मोहित मन मत बनो । यहाँ सूर्य-चन्द्र भी स्थिर नहीं दीखते हैं। सुरपति एवं फणिपति भी अपने मन में मरण की शंका करते रहते हैं। कुलकर, जिनवर, चक्रेश्वर, हरि, प्रतिहरि, बलभद्र, खगेश्वर आदि जितने भी महाबली उत्पन्न हुए, उनकी गिनती कौन कर सकता है? वे भी इस संसार में नहीं रहे।" संसार की गति को चचल—अस्थिर समझकर मदन–प्रद्युम्न की मति वैराग्य से भर उठी। (और विचार करने लगा कि-) -"सुख-दुःख की रस्सी से बँधा हुआ यह प्राणी आशावश अनेक (संकल्प—) विकल्प करता रहता है, किन्तु काल के द्वारा कौन नहीं खा डाला गया? जहाँ सुभगों का वियोग है, वहाँ क्या राग करें? क्योंकि वहाँ तो महान् शोक प्राप्त होता है। शोक से आर्त्त-ध्यान उत्पन्न होता है, उससे मनुष्य का निर्मल ज्ञान हट (19) 1. अ. "घ। (19) (1) नछ। (2) प्रधुम्नस्मन्त ।
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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