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महाकद सिंह विरहउ पज्जुण्णरित
115.17.12
गमणहो सहाउ तहो होइ धम्म अवयासहो णा ठाणहो अहम्मु । खीरहो जलु जेम हवेइ जुत्तु देह जि आहारु जि भी णिरुत्तु। उप्पज्जइ विणसइ परिणवेइ किउ कम्मु कोवि कालइँ सहेइ। पर-अहिय जे रोसारुण अयाण पावंति बहुब माणावमाण। रुच्चंति ण सयणहँ परियणाहँ संताउ | फिट्टइ केभ ताहें। आरंभहिं तं विहडइ खण्ण
मोहिहिं सइ जूरहिं मणेण । सिज्जहिं खणे-खणे णिद्दइव एम सुहु णउ लहति जम्मेण केम । पत्ता- इय जाणेविणु वप्प किज्जइ जीव दयालु मणु।
सुहियए पुण्णु अणंतु तुह्र आवागमणु पुणु ।। 297।।
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दुबई-- जिण : मागे संदीपउँ वा पर उगई
अणुवम उद'रि उबरि अमरावइ बड्ढइ सोक्त सतई ।। छ।। गणणाहइ तच्चु असेसु कहिउ भुवणोयरत्यु ण किंपि रहिउ ।
एवं पुद्गलों को) ठहरने में अधर्म द्रव्य, स्थान दान देने में आकाश द्रव्य सहायता देता है। दूध में पानी जिस प्रकार मिश्रित रहता है, उसी प्रकार हे कृष्णा, देह एवं जीव भी मिला हुआ है ऐसा कहा गया है। अपने कर्मों के अनुसार ही यह जीव उत्पन्न होता है, विनष्ट होता है और परिवर्तित होता है। अपने किये हुए कर्मो के फल को कितने ही समय तक सहता रहता है। जो पर-जीवों का अहित करते है, जो दूसरे के अहित में क्रोध से लाल बने रहते हैं, वे आज्ञानी अनेक प्रकार के मान-अपमान को पाते रहते हैं, ऐसे अज्ञानी लोग स्वजनों एवं परिजनों के लिए रुचिकर नहीं लगते। उनका सन्ताप किसी भी प्रकार से समाप्त नहीं होता। ऐसे लोग जो भी आरम्भ करते हैं वह क्षण भर में विघटित हो जाता है। दूसरों के द्वारा मोहित किये जाते हैं, अत: मन में झूरते रहते हैं। ऐसे भाग्यहीन, निर्दयी लोग क्षण-क्षण में सीजते (दुःखी होते) रहते हैं। वे किसी भी जन्म में सुख नहीं पाते । घत्ता- ऐसा जान कर हे वय, जीवों के प्रति अपना मन दयालु करो। क्योंकि ऐसे शुभभावों से अनन्त पुण्य होता है और आवागमन छूट जाता है।। 297 ।।
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तत्व-वर्णन एवं पूर्वभवावलि वर्णन द्विपदी- जो जिन-मत में मग्न हैं, उसमें लगे हुए है, वे परम उन्नति पाते हैं, तथा मध्य-लोक के ऊपर, उदार
और सैकड़ों प्रकार के सुखों वाले स्वर्ग को प्राप्त करते हैं। ।। छ।। गणनाथ ने उन कृष्ण के लिए भुवन में स्थित समस्त तत्वों का कथन किया। शेष कुछ भी न रहा । जिस
(1763) अाशय । (4) समुन्नत । (5) कर्म ।
(18) 1. अ. ''।