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महाफई सिंह विरहउ पज्जुण्णचरित
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किं रत्तंवर जाहो विहिष्णउँ कउलई' भूव सरूवइँ कलियउ तहि तें भूव पुणवि के आणिय तो कि सिहि विज्झइ उ सलिलइँ सुण्णु-गयणु महिजड किं चल्लइ णहवइ संखहँ वयणु णियत्तउँ ता किंपिय दंसणे पुलइजइ वह णिवसंतु वएण ण छिप्पइ वैयणा गहियउ आसंकइ सइ अणु हबइ करेवि णिरुत्तउ अइ असच्चु देही एक्कु जि किउ भणु कि कीरइ वण्ण वियारह गुरु-सीसु ण कोइ पहु सेवायरु जाणसु मगहाहिव वलदूसण
इय उत्तर जं लोयहँ दिण्णउँ । भोजइ यहु णिय भावें मिलियउ । जइ उबरंतरम्मि णिरु जाणिय । सलिलु वि केम' सोसिज्ज पर्वणई। एहिय जीव सिद्धि किं वोल्लइ। के साण) मण्णेइ अजुत्तउ। पुणरबि तासु वियऊयइ झिज्जइ। कहसु काइँ अरि पेक्खिवि कुप्यइ । रक्खहु मुक्उ भणेविणु कंखइ। अवरु वि जं भीमसए वुत्तउ । लोयालोउ सयलु पूरिवि थिउ। सूर-णर-णारय-तिरिय पयारइ । णाणा भेइ जिणइ भासिउ परु। णिसुणि अवरु महिवलय विहूसण।
क्या रक्ताम्बर ने जगत् को बनाया है? इसका जो उत्तर लोगों को दिया जाता है, वह भी भ्रान्तियुक्त है। सांख्य सम्प्रदायवादियों ने पंचमहाभूत को जीव का स्वरूप बताया है। अत: हे सांख्यजनों, यदि यह भूत अपने ही स्वरूप में मिल जाता है तब फिर वह पुनः शरीर में कैसे लाया जाता है? और वह उदर... गर्भ के भीतर आया है यह कैसे जाना जाता है? क्या अग्नि पानी से नहीं बुझायी जाती? पवन से पानी का शोषण कैसे हो जाता है? शून्य गगन में जड़ पृथिवी कैसे चलती है। इन प्रक्रियाओं से ही जीव की सिद्धि होती है। अधिक क्या बोलें? अत: जीव सम्बन्धी सांख्यों का कथन भी निरर्थक है। कौन ऐसा है जो सांख्यों के कथन को निरर्थक एवं अयुक्त नहीं मानेगा । प्रिय—इष्ट दर्शन से क्यों पुलकित हो जाता है? उसी प्रकार इष्टजम के वियोग से दुःखी क्यों हो जाता है? बदन (तन) में रहते हुए भी वह (जीव) वदन से स्पर्शित नहीं रहता। कहो कि शत्रु को देखकर उस पर क्रोध क्यों करता है? वेदना से ग्रस्त होकर आशंका क्यों करने लगता है और बचाओ-बचाओ. मरा-मरा चिल्ला कर सुरक्षित रहने की आकांक्षा क्यों करता है? इस प्रकार यह जीव स्वयं ही इन बातों का निरन्तर अनुभव करता है (कि जीव ही अपने कर्मों का कर्ता एवं भोक्ता है)। और भी कि, मीमांसक सम्प्रदाय वाले जो ये कहते हैं कि आत्मा एवं शारीर एक ही है और वह समस्त लोकालोक में व्याप्त है, यह भी असत्य ही है।
कहो कि यह जीव क्या करता है, उसका क्या वर्ण है, इस पर विचार करो? देव, नर, नारक एवं तिर्यंच ये जीव के चार वर्ण या गतियाँ हैं। न तो कोई किसी का शिष्य है और न गुरु और न कोई प्रभु या सेवक ही। इस प्रकार जिनेन्द्र ने जीवों के नाना-भेद बतलाये हैं। मगधाधिप (जरासन्ध) के सैन्य-बल को दूषित करने वाले हे कृष्ण, उन्हें जानो और हे महिवलय के विभूषण, उन्हें सुनो।
(16) 1. अ. किन्न। 2. अ. अनिलें। 3. अ. भोलाना
(16) (4) कुत्रस्थानात् । (5) भोक्ताकोनिमा