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________________ 15.16.41 महाकई सिंह विरइउ पज्जुण्णचरिउ [325 10 15 जं तुह सुह संजायउ जग गुरु तं महो होउ णिवारिय दुह भरु । इय बंदिवि जिणु वंदिउ गणहरु आसीणउ णिय-कोट्ठइँ सिरिहरु । जंपइ संधाहिव आहासहि जीव सहाउ वि सरुउ पयासहि । किं जड़ किं खणे अण्णुप्यज्जइँ कि गन्भाइ-मरणे संपज्जइँ। कि कत्ता लेवेण ण लिप्पइ । देहे वसंतु ण देहई छिप्पइ । किं एक्कु जि वियरइ भुवणोयरे एरिस भेय पयं पिज्जहिं परे। धत्ता- ता भासद गणहर गहिर-झुणि आयण्णहिँ गोवद्धण धारण।। जइ जडु जिउ सइव इँ कहिउ ता किं करइ परत्तहो कारण ।। 295 ।। (16) दुवई- अह जल वुब्बुउव्व उप्पजई विणसई' अवरु खणे-खणे। ____ जगु भंतिल्लु केम परियाणिउं वुद्धहं भंति णउमणे ।। छ।। जइ उप्पज्जइ विणसइ णउ थिर ता किं मुणइँ णिहाणु णिहिउ चिरु। पंकई पंकुलु हिउ किं फिट्टइ भंतिएँ भंति जणहो णउ तुट्टइ। मुझे भी मिले।" इस प्रकार उस श्रीधर ने जिनेन्द्र की वन्दना की, फिर गणधरों की वन्दना की, और फिर मनुष्यों के कोठे में जा बैठा और बोला—हे "संघाधिप गणधर कहिए और प्रकाशित कीजिए कि. ..."जीव का स्वभाव और स्वरूप क्या है? क्या यह जीव जड़ है, क्या वह क्षण-क्षण में उत्पन्न होता चलता है? अथवा क्या वह गर्भकाल से लेकर मरण-पर्यन्त (निरन्तर) बना रहता है? क्या जीव कर्त्ता है? क्या वह कर्म-लेप से लिप्त नहीं होता? क्या वह देह में रहता हुआ भी देह से छुआ हुआ नहीं रहता? क्या वह एक ही है? क्या वह भुवन में अकेला ही विचरण करता है? इसी भेद को सूक्ष्म रीति से समझाइए। घत्ता- तब गणधर ने गम्भीर ध्वनि पूर्वक कहा—"हे गोवर्धनधारी, सुनो। यदि जीव जड़ हो और स्वयं ही अपने विषय में कहे तो उसके दूसरे कारण क्या करेंगे? ।। 295 ।। (16) बौद्ध, सांख्य एवं मीमांसकों के जीव-स्वरूप का खण्डन द्विपदी- यदि यह कहो कि जीव जल के बुलबुले की तरह क्षण-क्षण में उपजता है और विनष्ट होता है तो यह जगत ही भ्रान्ति युक्त हो जायगा, इसे कौन जानेगा? इस विचारधारा के पोषक बौद्ध निस्सन्देह ही भ्रान्ति उत्पन्न करते हैं। यह विचारधारा मन में जमती नहीं ।। छ।। यदि (वह जीव) उत्पन्न हो, नष्ट हो तथा स्थिर न हो तब वह चिर-काल तक सुरक्षित रखे हुए निधान (धन) को कैसे स्मरण रखता है? पंक को फाड़कर पंकज कैसे निकलता है? मनुष्यों की भ्रान्ति इससे नहीं टूटती । (15) 1. 3 सइनें। (15)44) गर्भमृत्युपर्यन्त। (16) (1) बुद्धि इच्छादि गुण ते सति ईश्वरवादीसे। (2) व्यापितं । 13) कईमेन।
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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