________________
324]]
महाकाइ सिंत विरहाउ पज्नुण्णचरित
[15.14.34
ता मेल्लिनि आसणु हरिवलहँ यस्त पलट्टिवि अइवलहँ ।
भावई वेवि जिणु धरवि मणे पुरि धम्म भेरि संदिण्ण खणे । पत्ता- भयर हाउलु महुमहणु सहुँ चलेण पसरिय आणंद।
णिय पुत्त-कलतइँ गुरुयणहँ चलिउ समासु जय-जय सद्दइँ।। 294 ।।
दुवई.- पत्तो समवसरणे लच्छीहरु णिय सिरे कय कयंजली।
पय पणवंतु थुणइ परमेसर णासिय जम्म दुह सली।।। छ।। भो तुहुँ वीर कुसुमसर तासणु देव-देवि विसयारि विणासणु । पइँ मेल्लिवि भुवणत्तय सामिउ अवर कवणु उत्तम-गइ-गामिउँ। पइँ बालइँ अवाल-म) भाविय दुल्लह-गाण-महाणिहि पाविय । पइँ रूबइँ सकलुसइँ सइत्तई कयईं अहिंसा-धम्म णिउतई। तुम्हहँ पद-रय सम जइ जुज्जहिँ म. जेह कुसील कहिं पुजहिँ । दुल्लह णउ ल हे तुम्हारिस दीसहिं अइ ऊणेइ अम्हारिस ।
है।" तब अत्यन्त बली हरि एवं बलभद्र ने अपने-अपने आसनों को छोड़कर सात पद आगे जा कर भावपूर्वक जिनेन्द्र को मन में धारणकर नमस्कार किया और उसी क्षण नगर में धर्म भेरी बजवाई। घत्ता.. भाई (नेमिप्रभु) के प्रति स्नेह से भरकर वह मधुमथन—कृष्ण आनन्दित मन से बलदेव, अपने पुत्रों, कलत्रों एवं गुरु जनों के साथ जय-जय शब्दों का उच्चारण करता हुआ चला।। 294 ।।
(15)
कृष्ण द्वारा स्तुति । नेमिप्रभु का प्रवचन...जीव-स्वरूप द्विपदी--- वह लक्ष्मीधर (कृष्ण) समवशरण में पहुँचा। अपना सिर झुकाकर दोनों हाथ जोड़ कर परमेश्वर
नेमिप्रभु के चरणों में प्रणाम किया और इस प्रकार स्तुति की.-..."जन्म-मरण रूप संसार के दुःख समूह
को आपने नष्ट कर दिया है" ।। छ।। ___ "......हे प्रभु, आप काम-बाण को नष्ट करने में पराक्रमी हैं। हे देव, आप विषय-शत्रु के नाश करने वाले हैं। आपने त्रिभुवन के स्वामीपने को छोड़ दिया। आपके सम्मुख उत्तमगति का गामी और कौन हो सकता है? आपने बालपन में भी अबाल (वृद्ध) मति की भावना की थी। इसी प्रकार आपने दुर्लभ ज्ञान रूप महानिधि प्राप्त की। आप के रूप को देखने मात्र से ही समस्त कलुष—पाप स्वत: शान्त हो जाते हैं। आप अहिंसा धर्म का निरूपण करते हैं। आपकी वरण रज की पूजा पतिगण भी करते हैं। जिनकी मति—बुद्धि कुशील युक्त है, उनकी पूजा कैसे की जाय? हमारे जैसे तो अनेक दिखायी पड़ते हैं किन्तु है देव, आप दुर्लभ हैं। आप जैसे (महापुरुष) उपलब्ध नहीं होते। हे जगद्गुरु, सब जीवों को आपसे जैसा सुख मिला है, दुःतभार के निवारने वाला बही सुख
(15) {I)
। (2) राजाताति। (
स्पुक्त।