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15.14.13]
महाका सिंह विरइस पज्जुण्णचरिज
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दुवई-... संबोहेवि भव्व-पुरियईं हंसुव' हय तमोहयं ।
रय पड़त धरइ णिय-धम्म करेण लुणेइ मोहइ ।। छ।। जंभारिवि सइँ दासत्तु करइ जहिं पउ मेल्लइ तहिं कमलु धरइ। णिवडइ णहाउ कुसुमेह णिरु तहँ सुरहि-सलिलु णउ थाइ थिरु । णिम्मल महिघरइ कणोह भरु उग्घोसइ दुंदुहिँ धम्म सरु। सीयलु अणुकूलु वहई सिसिरु दीसइ चउराणणु तिजग-गुरु । तोडिय दिढ-कम्म महा णियलु 'इय हिंडेविणु महियलु सयलु। आगउ पुणु रेवयगिरिवरहो सिंगरग णिरुद्धय हिमकरहो"। णिक्खवण वणंतरे भुवणहिउ सुरवरहँ णमंतहँ जाम थिउ। ता वणवाल वर कुसुमफल उडु रिउहि जे उपज्जहिं विमल । हेलइ गहेवि परमेसरहो
णेविणु दसिय चक्केसरहो। पणवंतु पयंपइ अच्चरिउ
पहु जेण कुमार वउ धरिउ। संजायउ जिणवर आगमणु फल कुसुमाउलु संपण्णु वणु।
(14) वनपाल द्वारा सूचना पाते ही कृष्ण सदल-बल रैवतगिरि पर नेमिप्रभु के दर्शनार्थ चल पड़े द्विपदी– संसार में अज्ञानरूपी अन्धकार को नष्ट करने के लिए ज्ञानरूपी सूर्य के समान वे नेमिप्रभु
भव्य-पुण्डरीकों को सम्बोधित कर उनके मोह का लुंचन करते थे तथा अपने धर्मरूपी हाथ से नरक
में गिरते हुओं की रक्षा करते थे।। छ।। (उनके विहार के समय) जृम्भारि–इन्द्र स्वयं दास (सेवक) का कार्य करता था। वे प्रभु जहाँ-जहाँ चरण रखते थे, वहाँ-वहाँ वह कमलों की रचना कर देता था। आकाश से निरन्तर पुष्पवृष्टि गिरती रहती थी। सुगन्धित जल (गन्धोदक) बरसता रहता था, वह स्थिर नहीं होता था, पृथिवी निर्मल रहती थी तथा वह धान्य की बालों को धारण करती थी। दुन्दुभि बाजे धर्म-स्वर का उद्घोष करते थे। शीतल अनुकूल शिशिर वायु बहती थी। त्रिजगद्गुरु नेमिप्रभु के चार मुख दिखाई देते थे। उन्होंने कर्मरूपी विशाल भवन को तोड़ डाला था। इस प्रकार समस्त पृथिवीतल पर भ्रमण (बिहार) कर वे उस रैवतगिरि पर आये जिसके शिखरायों से चन्द्र किरणें भी रुक जाती थीं। भुवन के हितकारी तथा सुरवरों द्वारा स्तुत वे नेमिप्रभु जब निष्क्रमण कर वन के मध्य में विराजे थे तभी वनपाल ने षड्ऋतुओं के उत्पन्न निर्मल उत्तम पुष्प-फल लेकर विलास-क्रीड़ा पूर्वक परमेश्वर–चक्रेश्वर–कृष्ण को दिखाये और उन्हें भेंट देते हुए प्रणाम कर बोला—"हे प्रभु, आश्चर्य है, जिनसे कुमार प्रद्युम्न ने व्रत धारण किये थे, उन्हीं जिनवर का आगमन हुआ है। फल-पुष्पों से समस्त वन भर गया
(14) 1-2. ब.x।
(14) (1) सूर्यश्च । (2) चन्द्रकिरण।