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मलाकर सिह विरघउ पज्जुण्णचरित
[15.13.3
साहुहुँ किरिया जमवइ रयाइँ पुष्वंगवि अट्ठइँ चउसयाइँ । भिक्खासणाहूँ णव सिक्लुयाह एयारह सहसइँ भिक्खुयाह । अहिय अडसय संजमधराहँ
पण्णारह-सय अवहीसराहूँ। केवलिहिं कलिय भुवणत्तयाहँ एकाहिय दस सय संख ताहँ। तेत्तिय वेउवण रिद्धिवंत
पडिवाइय वायाहर महंत। सय अठ्ठ सुवाइहि दिढ क्याइँ मण-पज्जय णाणिय णव सयाई। 'चालीस-सहास' संजहिं
वर एक्कु लक्खु मंदिर जईहिं। गुणवंतेहिं जीव दयावईहिं
लक्खाइँ तिणि तहँ सावईहिं । संखाइँ तिरिय सुर संख रहिय अछति जति सव्वण्हु सहिय। अगइँ सुपट्टई धम्म-चक्कु जहिं जाइ ण तहिं कहिं मोह-चक्कु ।
जहिं जाइ तहिं जि जण जणिय सोक्खु जहिं जाइ तहिं जि बट्टइ सुहिक्खु । घत्ता- जहिं कहि तहिं जिणवर अइसयइँ जम्म वइर रोसारुण।
ही हि.1.3|६.. तिरिय सह रमंति पसमिय मरण.।। 293 ||
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साधु की क्रिया करने वाली जाम्बवती आदि आर्पिकाओं के साथ-साथ 400 पूर्वांगविज्ञानी थे। नवशिक्षित भिक्षुओं सहित कुलसंयमधारी मुनियों की संख्या 800 अधिक 11000 (अर्थात् ।।800) थी। 1500 अवधिज्ञानधारी साधु थे। भुवनत्रय में प्रसिद्ध केवलज्ञानी एक अधिक दस सौ अर्थात् 1100 थे और उतने ही (अर्थात् 1100) विक्रिया अद्धिधारी भी थे। प्रतिवादी से वाद करने वाले दढ़ एवं महान वादी साध 800 थे। मनः पर्ययज्ञानी 900 थे। 40000 आर्यिकाएँ थीं। (प्रतिदिन) मन्दिर में जाकर देव-दर्शन करने वाले एक लाख गुणवान एवं दयावान श्रावक थे। श्राविकाएँ तीन लाख थीं। संख्यात तिर्यंच थे। देव संख्या रहित (असंख्यात) थे। जो सर्वज्ञ के विहार के समय साथ-साथ रुकतें एवं चलते रहते थे। आगे-आगे मार्ग नगरों में धर्मचक्र चलता था। वे जहाँ-जहाँ भी जाते वहाँ कहीं भी मोह-चक्र उन्हें प्रभावित नहीं करता था। वे जहाँ भी जाते वहाँ सभी के मन में सुख उत्पन्न होता था। वे जहाँ भी जाते वहाँ सुभिक्ष हो जाता था। धत्ता- वे जिनेन्द्र जहाँ कहीं भी जाते, उनके अतिशय से जन्म-जन्म के बैरी, क्रोध से एक दूसरे को लाल-लाल
आँखों से देखने वाले सिंह एवं हाथी, सर्प एवं नेवला आदि तिर्यच भी प्रशान्तभन से एक साथ रमण (किलोलें) करने लगे। 293 ।।
(13) (1) श्रावक ।