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15.13.21
महाका सिंह विश्व पन्जुण्णवरिउ
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थिउ णियमे वि वणे वियरंत हरि णिय पयहँ णवाविय विविह हरि। गंदउ तुव सासणु वूढ हरि
भामंडलेण णिजिणिय हरि। छतत्तएण उवहसिय हरि
महो होउ समाहि तिलोय हरि। तावायउ तिक्खंडाहिबइ
भायर णाणेण पहिमइ। सेण्णेण पक्व-विपक्ख महइ
सहुँ दसहि-दसारहि मणमहई,"। वंदिवि जणु णिदिवि णियचरिउ आसीणउँ कोट्ठइँ गुण भरिउ । वरदत्त चिंतिय णियय-मणे पहु पुच्छेदि तउ संगहिउ खणे।
एयारह गणरंतेण सहुँ हुब णसिय वाहित्तय दुहुँ । घता- णिसुणेवि धम्मु देवइहे सुऊ सहुँ परियण' समागउ णियपुरे। उद्धय धयमालालंकियए रज्जु करंतु थक्कु मणहर घरे ।। 292 | 1
(13) दुवई— एत्तहिं परमजोइ परमेसरु परउवयार कारउ ।
वियरइ महि असेस सहुँ संघइँ केवलणाण धारउ ।। छ।।
गए, जिन्होंने विविध प्रकार से दूसरे सिंहों को अपने चरणों में झुकाया था। (इन्द्र ने स्तुति करते हुए कहा) हे नेमिप्रभु, आप अपने भामण्डल से हरि—सूर्य की प्रभा को भी जीत लेने वाले हो। हरि—कृष्ण को जीतने वाले है नेमि प्रभु, तुम्हारा शासन नन्दित रहे। आपके छत्र-त्रय से हरि—सूर्य भी तिरस्कृत हो जाता है। हे त्रैलोक्य हरि, मुझे समाधि की प्राप्ति हो।" तभी भाई की कैवल्य-प्राप्ति से हर्षित बुद्धि त्रिखण्डाधिपति तथा अपनी सेना द्वारा विपक्ष—शत्रु के भी पक्ष को मथित कर देने वाला वह कृष्ण दश-दशार राजाओं एवं प्रद्युम्न के साथ वहाँ आया तथा जिनेन्द्र की बन्दना करके और अपने भूतकाल की निन्दा कर, गुणों से युक्त वह (कृष्ण) अपने कोठे में बैठ गया। वरदत्त राजा ने अपने मन में विचारकर तथा नेमिप्रभु से पूछकर तत्काल ही उनसे तप ग्रहण कर लिया और वरदत्त राजा के साथ अन्य ग्यारह गणनायकों ने भी तप ग्रहण किया और इस प्रकार उनके व्याधित्रय (जन्म, जरा, मरण) के दुःख नष्ट हो गये। घत्ता- देवकी के सुत (कृष्ण) धर्म सुनकर अपने परिजनों के साथ अपने नगर में आया। वह मनहर उड़ती हुई ध्वजमाला से अलंकृत अपने घर (द्वारिका) में रह कर राज्य करने लगा।। 292 ।।
(13) नेमिप्रभु का संघ सहित विहार | उनके आगे-आगे धर्म-चक्र चलता था द्विपदी-.. इसी बीच में परमयोगी, परमेश्वर, परोपकारी, केवलज्ञानधारी, वे नेमिप्रभु अपने संघ सहित समस्त
पृथिवी-मण्डल पर विचरण करने लगे।। छ।।
(12) (3) प्रद्युम्न . 14 वरदनसह । (5) जन्मजरादि ।