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________________ 15.11.8] 15 5 भव- भमण भयहो भावइँ लयहँ छठोववास - विहि उच्चरिवि थि पडिमा जोएँ अरुहु जाम घत्ता. ... महाकपू सिंह विरइ पज्जुण्णचरिउ दिक्खकियाइँ दस - सय णिवहँ । णु डिंभु कुमग्गहो संचरिति । उप्पण्णउ णाणु चउत्थु ताम । अहिं दिणे गिट्ठा णियिउ दारामइहे पईसरेवि । वरदत्त गरिंदहो तणई घरि गउ उजि त भोयणु करिवि ।। 290 1 (11) दुवई -- एतहिं रयणविदिट्ठ कुसुमंजलि गंधोएण संजुवा । दिण्ण छप्पण्ण गमिय छम्मत्थइँ लेसा सेस अहम मेल्लं इँ तब किवाण सर सीसु खुडंतइँ वेणु'" मही' हरु तले आसीणउँ वज्जकास करेवि तुरंतइँ उष्माइयउ णा ेणु णिरु केवलु पिउ साहु साहु इम दुंदुहि पंचच्छरिय वर हुवा । । छ । । (11) 1.31 2. H. TI सहवि परीसह कय मउणत्थइँ । कम्म महागिरिवरु पेल्लंतइँ । तेरहम गुण ठाणि चडतइँ | अप्पा- अप्ण-भेय संलीणउँ । पूरिउ सुक्क - झाणु अरहंतइँ । णयाणेय सरिस सयलामलु । उन्होंने दीक्षा धारण कर ली। ठोपवास की विधि का उच्चारण कर कुमार्ग से हटकर जब वे योग्य प्रतिमायोग से स्थिर हुए, तब उन्हें चौथा मन:पर्ययज्ञान उत्पन्न हुआ । घत्ता— [319 अन्य दिन निष्ठा से निष्ठित उन नेमिप्रभु द्वारामती ( द्वारिकापुरी) में प्रवेश किया। वरदत्त राजा के भवन में पहुँचे और वहीं आहार ग्रहण किया ।। 290 ।। (11) प्रभु को कैवल्य प्राप्ति एवं धनद द्वारा समवसरण की रचना द्विपदी— इतने में ही रत्नवृष्टि, पुष्पवृष्टि, गन्धोदकवृष्टि सहित साधु-साधु शब्दोच्चार एवं दुन्दुभि वाद्यवादन रूप उत्तम पंचाश्चर्य हुए। । छ । । छद्मस्थावस्था में छप्पन दिन गमाये । मौनपूर्वक स्थित होकर समस्त परीषहें सहीं । समस्त अधम लेश्याएँ एवं अहंकार को छोड़ा | कर्मरूपी महापर्वतों को पेला ( नाश किया)। काम-मोह के शिर को तपरूपी कृपाण से फोड़कर तेरहवें गुणस्थान में चढ़े। बाँसवृक्ष के तले बैठे हुए आत्मा को आत्मभेद में लीन किया । पुनः तुरन्त ही पर्यकासन कर उन अरहन्त ने शुक्लध्यान को पूर्ण किया। तभी उन्हें केवलज्ञान उत्पन्न हो गया, जिससे पृथिवीलोक के समस्त सूक्ष्म स्थूल पदार्थों को निर्मल रूप से जाना। उसी से जीव की 14 गति आदि मार्गणाओं (11) (1) 48431
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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