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________________ 318] 5 10 महाकर सिंह विरइज पज्जुण्णचरिउ (10) दुबई— अब्भुद्धरि तिलोउ परमेसर कलिमल - पंक- खुत्तउ । गय हो भणेवि लोयंतिय जिणु जिणगुणहिं जुत्तउ । । छ । । सइँ सुरुका मति गाणि बहु अवगण्णिय दूरेहिं रायमइ मणे धरिय ण जेण सरायमह विरहाउर मेल्लिय रायमइ संजायउ सुरवर आगमणु जयकारे वि जाणइँ जलयवहे (1) रेवमगिरिवरे भंजति हरि असरीर णवेवि सहसंववणे उम्मूलिउ सकुडलु कैस-पासु भूसण सकोस महि पवर धया परिहरिवि सणेहु सहोय रहँ अहं चागमण दुहु | 'संगहिय पयत्तई रायमइ 1 भाविम भावेण सरायमई । हु हुहे तवोवरि रायमइ । अंतिम विलासु तो करवि पुणु । णिउ अमरहिं परिभमंत भरहे । ठवियउ जिणु सिद्ध-सिलाहि वरि । सम भावइँ भाविति तिजगु मणे । णं घाइ - चउक्कहँ वल-पणासु । छत्तोह - चमर रह मत्त गया । अवहेरि करेवि सेवायरहँ । (10) 1-2, अ × 1 3. 3. । 4. अ. गुं । 5. अ. लि । (10) चतुर्विध ज्ञानधारी नेमिप्रभु द्वारावती के राजा वरदत्त के यहाँ जाकर आहार ग्रहण करते हैं द्विपदी --- कलिमल रूपी पंक को खोदकर फेंक देने वाले तथा जिनेन्द्र गुणों से युक्त परमेश्वर जिनेन्द्र नेमिप्रभु का उद्घारकर तथा समझाकर वह लौकान्तिक देव वापिस स्वर्ग को लौट गया । । छ । । [ 15.10.1 तुम स्वयं बुद्ध हो, मति, श्रुत एवं अवधि रूप तीन ज्ञानों के धारी हो, चतुर्गति के दुःख को सहन नहीं करने वाले हो, श्रमण-धर्म के प्रति तो प्रयत्न पूर्वक राग-मति संग्रहीत की, किन्तु जिसने मन में राजीमती के प्रति सरागमति धारण नहीं की और जिसने मोक्ष- लक्ष्मी के प्रति रागमति को धारण किया, जिसने विरहातुर राजमति को भी छोड़ दिया। प्रभु के लिए राजीमती से भी बढ़कर तपोलक्ष्मी हो गयी। वहाँ स्वर्ग से देवों का आगमन हुआ और अन्तत: उनका तपकल्याणक किया गया । जय-जयकार करते हुए उन देवों ने यानों से जलपथ (आकाश-मार्ग) में होकर भरतक्षेत्र में घुमाते हुए, कर्मशत्रु का भंजन करने वाले उन नेमिप्रभु को रैवतगिरि (गिरनार पर्वत) की सिद्धशिला पर स्थापित किया । त्रिजगदीश उन नेमिप्रभु ने सहस्राम्रवन स्थित सिद्धशिला पर से सिद्धों को नमस्कार कर अपने में सम भावना पूर्वक द्वादशानुप्रेक्षाओं का चिन्तन किया। उन्होंने सुन्दर घुँघराले केश - पाश को उखाड़ फेंका ( केशलुंच किया ) । मानों चार घातिया कर्मों के बल को ही नष्ट कर डाला हो । आभूषणों सहित कोष, राज्य, प्रवरध्वजा, छत्रसमूह, चमर, रथ, मदोन्मत्त गजों का परित्याग कर निरन्तर सेवा में संलग्न स्नेह सहचरों को उपेक्षित कर भव-भ्रमण से भयभीत होकर 1000 ( दस सौ) राजाओं के साथ (10) (1) आकाऐ |
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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