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________________ 441 महाक सिंह विराउ पज्जुण्णचरिउ वीरोचित गुणों के साथ-साथ कवि ने मानव के दोषों की भी चर्चा की है। कवि की दृष्टि में मद्य-पान (15! 19/5), द्यूत-क्रीड़ा (14/15/10) एवं कामासक्ति (8/18/8) जीवन के महान् शत्रु हैं। उन्हें समाज एवं राष्ट्र का घुन माना गया है। (3) रस भारतीय काव्य-शास्त्रियों ने रस को काव्य की आत्मा स्वीकार कर उसके महत्व का विशद् विश्लेषण किया है। उनके अनुसार मात्र शब्दाडम्बर ही काव्य नहीं, बल्कि उसमें हृदय-स्पर्शी भावों का होना भी नितान्त आवश्यक है। अतः शब्द और अर्थ यदि काव्य रूपी शरीर की संरचना करते है, तो रस उसमें प्राणों की प्रतिष्ठा करते हैं। वीणा के तारों को छेड़ने से जैसे झंकृति उत्पन्न होती है, उसी प्रकार हृदय-स्थित भावनाएँ भी काव्य का सम्बल पाकर उसमें रस का संचार करती हैं, इसलिए रस को ब्रह्मानन्द-सहोदर' कहा गया है। महाकाव्य युग-जीवन की समग्र चेतना को अपने में आत्मसात् किये होता है। अतएव महाकाव्य में विविध घटनाओं एवं परिस्थितियों के अनुरूप रसों की संयोजना स्वत: होती ही चलती है। प्रत्येक महाकाव्य में एक रस अंगी होता है तथा शेष रसों की स्थिति उसके सहयोगी के रूप में होती है। प्रस्तुत काव्य का प्रारम्भ शृंगार-रस से हुआ है और अमृत पयस्विनी सुरसरिता की प्रवाहमयी धारा के समान विभिन्न रसोद्रकिनी घटनाओं एवं कथा-मोड़ों को पार करता हुआ वह शान्त-रस के निर्मल-रत्नाकर में पर्यवसान को प्राप्त होता है। सिंह कवि ने श्रृंगार के साथ-साथ वीर, रौद्र, भयानक अद्भुत, कण, वात्सल्य एवं शान्त रसों की भी प्रसंगानुकूल उद्भावनाएँ की हैं, जिन पर यहाँ संक्षिप्त प्रकाश डाला जा रहा है: श्रृंगार-रस:--- शृंगार-रस का स्थायी भाव रति है और यह संस्कार रूप से समस्त विश्व में व्याप्त है। कवि ने इस रति-भाव को रसावस्था तक पहुँचा कर उसमें बड़ी ही कुशलतापूर्वक आस्वादन-योग्यता उत्पन्न की है। पन्च० में श्रृंगार रस के दोनों पक्षों का निर्वाह बड़ी ही कुशलता पूर्वक हुआ है। यथा--- __ संयोग-शृंगार- प्रस्तुत ग्रन्थ में संयोग-शृंगार का चित्रण कृष्ण-रुक्मिणी की केलि-क्रीड़ाओं के रूप में आया है। श्रीकृष्ण रुक्मिणी के भवन में श्रृंगारिक क्रीड़ाएँ करते हुए जब दीर्घकाल व्यतीत करने लगते हैं, तो सत्यभामा को बड़ी ईर्ष्या होने लगती है। एक दिन श्रीकृष्ण सुगन्धित पदार्थों से युक्त पान के चर्वित अंश को चादर के कोने में बाँध कर सत्या के भवन में आते हैं और नींद का बहाना बनाकर वहीं लेट जाते हैं। तब सत्या विचार करती है कि यह सुगन्धित द्रव्य श्रीकृष्ण ने रुक्मिणी के लिए अंचल में बाँध रखा होगा। अत: ईर्ष्यावश उसे खोलकर वह उससे अंगलेप तैयार कर तथा अपने शरीर में उसे पोत कर अपना तन सुवासित कर लेती है। सत्या के इस भोलेपन पर श्रीकृष्ण को हँसी आ जाती है जिसे देखकर वह रुष्ट हो जाती है (3/6/1-5)। ___ यहाँ पर रुक्मिणी आलम्बन और कृष्ण आश्रय हैं। रुक्मिणी के साथ भोगे हुए भोगों को श्रीकृष्णा सत्यभामा के यहाँ श्रृंगारोचित सापत्निक-ईर्ष्या के रूप में व्यक्त करते हैं। अतः रति स्थायी-भाव की अभिव्यक्ति होती है। इसी प्रकार कवि ने दाम्पत्य-रति के अनेक ऐसे अनमोल-चित्र भी प्रस्तुत किए हैं कि उनमें केवल चित्रकार की तूलिका से रंग भर देना ही शेष रह जाता है। राजा मधु और कनकप्रभा की रति-विषयक क्रीड़ा के वर्णन में संयोग-शृंगार का माधुर्य स्वत: सवित होने लगता है (6/22)। श्रीकृष्ण का रुक्मिणी के साथ द्वारका-प्रवेश के समय कवि ने नारियों की विह्वलता का अपूर्व चित्र उपस्थित
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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