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महाकह सिंह विरइज पज्जुण्णवरित
[15.8.1
दुवई— सुर-विसहर-स्वगेस-किण्णर-णर-गंधव्वेहिं संथुवा ।
पुज्जरएइ अडइ अंगुब्भउ जा तइलोय अब्भुमा ।। छ ।। अइ गंधड्ढणाइँ कुर"भूमिव । अक्खयवंत सहइ सिवगइ इव । मसिरिव3) पावइ कुसुमाउल दियभत्ति वणं आगउ राउल । दीवा लिव) जंबुदीबोवम धूवायर बरगंधब्बहो सम। सुपहु सेव णावइ फल दंसिर सिसु कीलव सोहइ सालिब कर । इय उच्छवइ महा जय घोसइ णच्चिय सुर-णर वर परिओसइ । वासर-अठ्ठ तहिं जि णिवसेविणु भत्तिएँ जिनबिंवइँ अच्चेविणु। मिच्छामलु असेसु तुंचेविणु सुहयरु सेय विडवि सिंविण ।
आगउ णियपुरि धम्माणदिउ सावय-णियरहि अहिणंदिउ। घत्ता-- थिउ मंदिरे सरु अणुदियहो सिरिणयणुप्पल पेरंति ण थक्कइ ।
रिद्धिए जंभारि परि जिणइ तहो माहप्पु को वण्णहु सक्कइ ।। 288 ।।
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सुगन्धि, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप, फल एवं शालि द्रव्यों द्वारा पूजा द्विपदी— सुरों, नागेन्द्रों, विद्याधरों, किन्नरों, नरेन्द्रों एवं गन्धर्वो द्वारा स्तुत, प्रद्युम्न ने त्रैलोक्य के लिए अद्भुत
जिनेन्द्र की पूजा रचायी।। छ।। कुरुभूमि की सुगन्धि के समान सुगन्धित द्रव्य, शिवगति के समान सुशोभित अक्षत द्रव्य, वसन्तश्री के समान पुष्म-समूह तथा भक्तिपूर्वक नैवेद्य को लेकर उस राजकुमार ने जिनेन्द्र के आगे चढ़ाया। जम्बू-द्वीप के समान दीपावलि लेकर, गन्धर्व देवों के सदृश उत्तम धूप लेकर एवं उत्तम फल लेकर प्रभु की सेवा में सिर झुकाया। पुनः हाथों में शालि (अक्षत मिश्रित अर्घ) शिशु-कीड़ा के समान सुशोभित होने लगा। इस प्रकार सुर एवं नरवरों से घिरे हुए उस प्रद्युम्न ने नृत्य कर महान् जय घोष पूर्वक उत्सव मनाया और वहाँ आठ दिनों तक जिनेन्द्र की सेवा कर, भक्तिपूर्वक जिन-बिम्बों की अर्चना कर, समस्त मिथ्यात्व रूपी मल को धोकर, सुखकारी श्रेयस रूपी वृक्ष का सिंचन कर धर्म कार्य से आनन्दित होकर अपने नगर को लौट आया। तब वहाँ के श्रावक समूह ने उसका अभिनन्दन किया। घत्ता- स्मर अपने महल में ठहरा । प्रतिदिन अपने नेत्र रूपी कमलों से श्री-सौन्दर्य को प्रेरणा देता हुआ धक्ता
नहीं था। अपनी ऋद्धियों से जृम्भारि (कुबेर) को भी जीतता था। उस (प्रद्युम्न) के माहात्म्य का वर्णन कौन कर सकता है? || 288 ।।
(8) 1. अदीवालि।
18) (1) प्रद्युन्न । (2) भाँग मिदा कउवभूमिवा इव। (3) वसंत ।
(4) अहारपुक्तापलेनैवेद अगर सहित च 145) अनेकदीवरितः।