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15.7.16]
महाकर सिंह विरइज पऊनुषणचरित
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णालिएर पमुहहिं वरदवहिँ मायंदिफ्लुका - दक्खरस भव्वहिं। अइ सुवंधु णिम्मलु मणु रंजणु कणय छवि वहंतु हय अंजणु। धिउ पुण्णंधिवाह पल्हच्छित णं दुक्कम्म समूहु गलच्छिउ। हास-ससंक कति कतिल्लइँ
मुणिवर मइ समेण हय सल्लइँ। पहाविय जिणवरिद वर दुद्ध चउ दह गामइँ णाइ णिरुद्धई। घित्तद्ददुदहिउ णिम्महिया । पयडि णिवहु तिविहु वि णं महियउ। लेवि सुअंधु सलिलु पक्खालिनि णं भव-दुमहो मूलु उक्खालेवि । अट्ठोत्तरु-सउ कलसहिं सिंचिय णं कसाय मिच्छत्त वि वंचिय। किउ गंधोव्बउ धुव कलि पंकहं णिह-णिय भव-भव वोह कलंकह।
कमहस कमल मुक्क कुसुमंजलि णं सल्लत्तय दिण्ण जलंजलि''। घत्ता– भिंगारु लएविणु रइरमणु जलरेहत्तउ भुव इव केहउ ।
उप्पत्ति जरा मरणत्तयहो विरइउ सेउबंधु णं जेहउ।। 287।।
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सुगन्धित निर्मल तथा मनोरंजक कनक-कान्ति को धारण करते हुए अंजन (पाप) रहित होकर भव-बाधाओं को नष्ट करने वाला पूर्णार्य चढ़ाया, मानों दुष्कम-समूह को ही गलित कर दिया हो। चन्द्र के हास की कान्ति से सुशोभित मुनिबरों की सुमति के समान शल्य रहित होकर उस प्रद्युम्न ने जिन-वरेन्द्र का उत्तम दुग्ध से न्हवन कराया मानों चारों गतियों को दहा देने (नष्ट करने) के विरुद्ध कार्य किया हो घृत, दुग्ध, दही से अभिषेक किया। मानों त्रिविध (मोह, राग, द्वेष) प्रकृति-समूह को ही मथित कर दिया हो। फिर सुगन्धित जल लेकर प्रक्षालन किया। मानों संसार रूपी वृक्ष के मूल को उखाड़ दिया हो। फिर 108 कलशों से सिंचन (अभिषेक) किया, मानों अपने को कषाय-मिथ्यात्व से ही बचा लिया हो, फिर उसने कलि-काल के पंक (पापों) को धोने वाला गन्धोदक बनाकर लगाया, जो भव-भय रूपी व्याधि एवं ज्ञान के फलंक को नष्ट करने वाला है। पुन: उनके चरण-कमलों में उसने पुष्पांजलि छोड़ी मानों शल्यत्रय को जलांजलि ही दे दी हो। घत्ता .. रतिरमण ने श्रृंगार (मंगल-कलश) लेकर त्रिभुवन की प्रतीक जल की तीन रेखाएँ छोड़ीं। वे
कैसी लग रही थी? वैसी ही, मानों उत्पत्ति, जरा एवं मरण को नष्ट करने के लिए सेतुबन्ध ही हों।। 287 ।।
(1) (4) अत्र । (5) पुण्यपाद-: (6)+टिनदही। 17) सल्याजलंजलि।