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महाफइ सिंड विरउ पज्जुण्णचरित
115.6.22
मुणिसुब्वय-सुव्वय भार धरं णवणीरदु सण्णिह गहिर गिरं। णमिणाहं णबइ णिरावर"णं जे णिहयं णिय णाणावरणं। वंदे णेमि जिय महुमहणं
किउ जेण परीसह सय हरणं । पासं पसरिय भुवणयले जसं किय सिद्ध वरंगण अप्पवसं। वंदेइ सुबड्ढमाण परमं
सिवपुरसामी धीरं चर में। धत्ता- इय णविवि जिणेसर दुरियहर पारंभिउ पहवणुछिउ ।
जगु वहिरिउ हय इंदुहि रवेण वड्ढिउ सुर बिसहरहं भउ ।। 286 ।।
दुबई— वज्जा'उहु हुवासु जमु णेरिउ वरणु वि पवणु णिहिवई।
___ संभु फणीसु सोम आवाहिय जिण कम-कमल कई रई।। छ।। जण्ण भाय दीबाबलि लेविणु कुसुमक्खय जलेण पीणेविणु। पुणु मणे फलिह विणिम्भिय सव्वहं पाडिहेर सहियह जिणबिवह ।
हूँ जिनकी दाणी नवीन मेघ के समान गम्भीर है। जो आवरण रहित हैं, जिन्होंने अपने ज्ञानावरण कर्म को नष्ट किया है, उन नमिनाथ को मैं प्रणाम करता हूँ। काम को जीतने वाले नेमिनाथ को प्रणाम करता हूँ, जिन्होंने सैकड़ों परीणहों को सहन किया है। जिनका भुवनतल में यश फैला है और सिद्धि रूपी वरांगना को अपने वश में किया है, ऐसे पार्श्वनाथ को प्रणाम करता हूँ। शिवपुर के स्वामी, धीर वीर श्रेष्ठ एवं अन्तिम तीर्थकर सुवर्धमान महावीर की वन्दना करता हूँ। घत्ता- (इस प्रकार उस प्रद्युम्न ने) दुरितहरों जिग्नेश्वरों को नमस्कार कर उनका न्हवन, उत्सव प्रारम्भ
किया। जगत को वधिर करने वाले बजाये गये। दुन्दुभि के शब्दों से देवों एवं मागेन्द्रों को भी भय बढ़ने लगा।। 28611
कैलाश-पर्वत पर स्थित चौबीसी मन्दिर में प्रद्युम्न द्वारा दशदिक्पालों का स्मरण एवं
जिनेन्द्र का अभिषेक तथा पूजन द्विपदी--- पुन: उस प्रद्युम्न ने वज्रायुध (इन्द्र), हुताश (अग्नि), यम, नैऋत्य, वरुण, पवन (वायव्य), निधिपति
(कुबेर), शम्भु (ईशान), फणीश (नागेन्द्रअधः), सोम (उ) इस प्रकार दश-दिशाधिपतियों (दिक्पालों)
का आवाहन कर जिन-भगवान के चरण-कमलों में रति की।। छ ।। प्रद्युम्न दीपावलि लेकर पुष्प, अक्षत एवं जल से पूजाकर पुनः मन में स्फटिक के बने समस्त प्रातिहार्यों सहित जिन-बिम्बों को नालिकेर प्रमुख उत्कृष्ट द्रव्यों से माकन्द (आम्र) द्राक्षा आदि के रसों से भव्य अत्यन्त
(6) 2. अ. "R":
ta) {9) आनरगरहितं । ( 0) इन्द्र। (2) अग्निा (3) खेर !