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माकन सिंह विरउ पण्णचरिउ
अवलोइउ साणंद गिरिवरु सावएहिं सेविउ णं मुणिवरु विविहरयण रइयइँ जिण गेहइँ छेवि सविमाणहो तुरियउ
(6) 1. अ. x
णं महि-महिलाए उभिउ पियकरु मोक्खु व सिद्ध सहिउ णं दुहहरु । घंटा-धय-तोरण कय सोहइँ ।
जय-जय-जय भगंतु ऊयरियउ ।
घत्ता — भुवणत्तय णाहहँ केवलवाहहँ भव्वंदुस्ह दिनेसरहँ ।
कम्पट्ठ-विणासहँ तच्च पयास थुइ आढत्त जिणेसरहँ । । 285 ।।
पणवे सुरिंद- 'रिंद वं
अजियं जिय अंगय मोह डर संभव भवोह कय णिरु विरमं अहिणंदण मंदिउ तुव चरिय सुमयं सुमय 2 सुपयासिरियं
(6)
दुवई --- असि-मसि - किसि सुपमुह पसु - पालणु पइँ परमेस ईरियं । छेइ छुह वेविरु भुवण जणंपि-धीरमं । । छ । ।
कप्पहुमहं
रिसहपि रिसीसर संघ युवं जं इह परलोयहो सोक्खवरं । संभव देवं वंदे परमं । जं हरिहर - वंभह णउ धरियं । वंदेसु पहुं समए सुरयं ।
देखा। वह ऐसा प्रतीत हो रहा था, मानों मही रूपी महिला को सहारा देने के लिए ही वह अपना हाथ फैलाये हुए खड़ा हो । श्वापदों से सेवित वह (गिरवर ) ऐसा प्रतीत होता था, मानों वह मोक्ष - सिद्धि से युक्त दुखहारी मुनिश्रेष्ठ ही हो। विविध रत्नों से रचित, घण्टा, ध्वजा, तोरणों से सुशोभित जिनगृहों को देखकर वह जय जय जय करता हुआ अपने विमान से उतर पड़ा ।
पत्ता- उसने (उस चौबीसी में जाकर ) भुवनत्रय के नाथ, केवलज्ञान के वाहक, भव्य -कमलों के लिए दिनेश्वर (सूर्य), अष्टकर्मों के विनाशक, तत्त्व प्रकाशक उन जिनेश्वरों की स्तुति करना प्रारम्भ की।। 285 ।।
[15.5.13
(6)
प्रद्युम्न कैलाश पर्वत पर चतुर्विंशति जिनेन्द्रों की स्तुति करता है।
द्विपदी--- “हे परमेश, कल्पवृक्षों के नष्ट हो जाने तथा क्षुधा से कम्पित भुवन के लोगों को धैर्य धारण कराकर उन्हें असि मसि, कृषि, प्रमुख पशुपालन आदि की प्रेरणा आपने ही की है। । छ । ।
ऋषीश्वरों गणधरों के संघ द्वारा स्तुत ऋषभदेव को सुरेन्द्र एवं नरेन्द्र झुककर प्रणाम करते हैं 1 जो इस लोक एवं परलोक के लिए सुखकारी हैं, ऐसे अजितनाथ, कामदेव एवं मोह के डर को जीतने वाले हैं। जन्म-मरण से युक्त भवों का सर्वथा विनाश करने वाले परमश्रेष्ठ सम्भवनाथ की वन्दना करता हूँ । हे अभिनन्दन, तुम्हारा चरित्र सन्दित होता रहे, जिसे हरि हर एवं ब्रह्मा भी धारण नहीं कर सके। आगम में स्मृत श्रेष्ठ प्रभु तथा सुमति के प्रकाशक सुमतिनाथ की वन्दना करता हूँ । पद्म से आलिंगित पद्मप्रभ भगवान हैं, जिन्होंने भुवन को अपनी
(6) (1) गगवरदेवैः (2) नति ।