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________________ 15.5,12] महाकइ सिंह विष पन्जुण्णचरिउ [311 दुवई— चित्त-पयंगु णाइँ तेयड्दुवि छण-ससि मंडलाणणो। भोपासत्तु गवइ णिसि वासरु अरि-उरे-वंस-दारणो।। छ।। इय जा वछइ पुरि वम्मीसरु । संपत्तउ फग्गुण गंदीसरु। ता चितइ पसणु-मणु रइवरु इज्झउ धम्म विहणउँ जो णरु । पण मुणइँ कि पि हियाहिउ गावइ खज्जइ रवणवि पडुल्लउ पावइ । दिज्जई जमहो विहँ जे विणु वलि फिट्टइ णउ कयाबि पुणु भव सलि । करमि किंपि हउँ धम्महो कारणु सिव-सुहयर दुग्गइहे णिवारणु। भरहवि णिम्मियाइँ तिजगेसहँ कइलासोदरि जिण चउदीसहँ । अट्ठाहियउ वियंभिवि भाव ण्हवण तण दीवय थुइ राव। चल्लिउ हय-गय-रह-जंपाणहिं छत्त-महाधय दिव्व-विमाणहिं। हिमहर-हास सरिस चमरोह विजिज्जंतु मयणु बहु सोहई। गउ संहि समाणु तहि णरहरि दिटु तरंग-भंग गंगासरि। (5) फाल्गुन मास के अठाई-पर्व के आते ही प्रद्युम्न में धर्म-प्रवृत्ति जागृत होती है और वह कैलाश पर्वत के जिनगृहों की बन्दना हेतु वहाँ पहुँचता है द्विपदी- चित्र (चैत्रमास) के सूर्य के समान तेजस्वी, पूर्णमासी के चन्द्रमण्डल के समान भद्र मुख वाला, अरिसमूह के वंश के हृदय को विदीर्ण करने वाला वह प्रद्युम्न भोगासक्त रहता हुआ अपने दिन-रात व्यतीत कर रहा था।। छ।। इस प्रकार विलास-क्रीड़ाएँ कर जब वह कामदेव-प्रद्युम्न अपनी नगरी में वापिस लौटा तभी फाल्गुन-मास का नन्दीश्वर पर्व आकर उपस्थित हो गया। तब वह रतिवर प्रसन्नचित्त होकर विचार करने लगा-"जो मनुष्य धर्म-विहीन है, उसका जीवन व्यर्थ है। वह कुछ भी नहीं समझता, केवल अपने स्वार्थ की बातें ही गाता रहता है, जो रमण-भोगों में आसक्त रहता है, वह (निःसन्देह) ही संसार-पटल प्राप्त करता है। ___ जो बिना बलि के ही यम को अपनी बलि देते रहते हैं, उनका भव-शल्य (कभी) नहीं कटता। अत: अब मैं कुछ धर्म-कार्य करूँ, जो दुर्गीति का निवारण कर सुखकारी शिवगति प्रदान करा सके। अत: भरत (चक्रवर्ती) द्वारा निर्मापित कैलाशपर्वत के ऊपर त्रिजगदीश्वर जिनेन्द्रों की चौबीसी में जाकर इस अठाई पर्व में विशेष श्रद्धा-भावना पूर्वक उन (जिनेन्द्रों) का अभिषेक कर स्तुति पूर्वक दीपक जलाना चाहिए। "यह विचारकर हय, गज, रथ, पालकी के साथ छत्र, महाध्वजा एवं अन्य शोभाओं से युक्त दिव्य-विमान में बैठकर वह प्रद्युम्न हिमगृह के हासोल्लास के समान चामर-समूहों की दुरानों से युक्त होकर शम्बु एवं अन्य प्रधान पुरुषों के साथ चला। वहाँ (मार्ग में) उसने तरंग-भंगियों से युक्त गंगा नदी देखी। वहाँ आनन्द से भरकर गिरिवर (हिमालय) को (5) () चित्तसून।
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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