________________
310]
महाकद सिंह विराउ पज्जुण्णचरिउ
115.43
10
15
महामणि णील-पहम्मि णहम्मि मणोरम-उज्जल-आस-'मुहम्मि । णिएइ सिणिद्ध पएसईलाहे लयातरु-पत्त चलंत चलाहे। पगज्जिय संभु तणू तम-मेहिं थिवेरि चित्त पवित्तिए गेहि। पयं पिवि सक्कर पउर विसीसु सुसायई4) सीड) - सरंतु रईसु । सुचंपय-पउम-अंतय-वउल विमुद्दिया रुणिय भमर-उल । सुहसरयम्मि रमेइ समाणु
लहेइ सुइच्छइ ताह पमाणु। हिमेण विमद्दिय सयल वणाइँ पलोयह सालि विसा ले वणाइँ। सेदत्तिय-कुंद-कुमुअ-मचकुंद णीलोप्पल-बंधुअ"-वियसिय संद। 'सिरोवडि णेसइ वण्ण विचित रसेइ रसायण सुटठु पबित्त। अहणिसु अयर डहिज्जइ दिन्छ हिमागमे सेवइ एरिसु सव्वु । णिवंधइ वेणिम-दंड सिरम्मे
वसेइ सिरम्मे णिरंध घरम्भे । ण छोल्लइ दंत ण सेल्लइ कंत वरुंचइ मंचइ सेज्ज महंत । समोढइ रत्तउ कंवलु चारु विलेवणु कुंकुम सीयवु हारु।
सुलभाउ मोतु। सुसंधु मलिदिउ माणइँ संबुहे बंधु। पत्ता...- जइ होउ त होउ अणंग समु णरु सयणासा पूरणु।
_णिद्दइउ गलिज्जउ गभे थिउ जणणि सिहिण उल्लूरणु"।। 284 ।। उसे परिमार्जित कर चित्त की प्रवृत्ति के अनुसार घर बनाकर उसमें रहने लगता है। वह रतीश (प्रद्युम्न) मिश्रित दुग्ध पानकर उसका आस्वादन लेता था। सीता-सरोवर के किनारे रमण करता था। रुण-झुण-रुण-झुण करते हुए भ्रमरकुलों से व्याप्त विकसित सुन्दर चम्पक, पद्म तमाल एवं बकुल-पुष्पों से सुशोभित शरद-काल में रमणियों को साथ में लेकर इच्छानुसार भोग-भोगता था, समस्त वन हिम से विमर्दित था। वह विशाल, शाल वृक्षों वाले वनों को देखता था। सेवन्ती, कुन्द, कुमुद, मचकुन्द, नीलकमल, बन्धूक (जपाकुसुम) जाति के विशाल विकसित विचित्र पुष्पों को देखता था । भली-भाँति तैयार किये गये पवित्र रसायनों का स्वाद लेता था। अहर्निश दिव्य-अगुरु जलाया जाता था। हेमन्तु ऋतु के आगमन पर यह सब सेवन किया जाता था। सिर में वेणी-दण्ड (मफलर) बाँधता था, भवन-शिखर को निरन्ध्र (छिद्र रहित) कर उसमें बसता था। न (ज्यादा देर तक) दाँत रगड़ता था, न अपनी कान्ति को सजाता था। महार्य शैया के मंच में अधिक रुचि रखता था। शम्बु का वह भाई प्रद्युम्न भली-भाँति लाल सुन्दर कम्बल ओढ़ता था, विलेपन करता था, शीतल कुंकुम लगाता था और हार धारण करता था। सुन्दर उष्ण एवं सुगन्धित भोजन, घी को इच्छानुसार ग्रहण करता था। घता- यदि मनुष्य होना हो तो स्वजनों की आशा पूरी करने वाले अनंग-प्रद्युम्न के समान बनना चाहिए।
माता के गर्भ में आकर निर्दयता पूर्वक उसके गर्भ को गलाने वाले तथा उसके स्तनों को शिथिल करके (प्रद्युम्न के विपरीत काम कर) माता को सजाने वाला मनुष्य नहीं बनना चाहिए।। 284।।
(4) 1.व. सु। 2-3.अ. पिवेद पगि सुसकर मीसु ।
4. अ. XI 5. अ. गपोवति। 6. अ. भु।
(4) (2) पृथिव्य' । 43) पुत्रपट ले। (4) अस्वाक्ष्यति । (5) सीतासरोवर ।
(6) विकशित पुष्पे। (7) उपा- कुसुम । 18) छिद्ररहित । 19) माता स्तनौशिथलीकरण।