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________________ 308 10 5 महाकइ सिंह विरइ जुण्णचरिउ उहमसेढि सुमणोहर सीमहि । असेस णियच्छइ गिव्वाणु वि सविमाहिं गच्छइ । सरवर - सरिवण- उदवण गमहिं विसवहे (3) दीव ( 4 ) छत्ता-- आलाव णिउरे संजोइमइँ सबरिहिं " कंदर-वासिणिहिं । सलहिज्जइ जसु हरिणंदणहो पच्चतिहि सुविलासिणिहिं । । 282 ।। (3) दुवई जं जं निय मम्मि पवियप्पर तं तं लहइ रइवरौ । भणु भुवणयले तस्स किं दुल्लहु जस्स स पुण्णु सहयरो । । छ । । चंदणेण थोवेण ( ) लेवणं विवि कुसुम-रम दिष्णु दियमणं । ers - पलंबु कंठयले हारउ । ! 'पंचमोससाला वियंतउ । अद्धवरिस (2) मोतियहँ सारउ दोलावाण लीलई रपंत किसलयोह(3) अहिणव नियंत तिविहि(4) प कलिठि कलवरी(S) जक्खयं सियं धोय अंवरं जुवइ सिहि णउरे पेल्लयंत । महु ( ) समागमे तासु सुहयरो । चंद किरण कमलायरं वरं । [15.2.10 ( विद्याधर ) श्रेणियों, समुद्रों, समस्त सुन्दर द्वीपों एवं स्वर्ग की अपने ही विमान से यात्रा करता है। घत्ता - कन्दराओं में निवास करने वाली भिल्लनियाँ उसके आलाप अपने हृदयों में संजोने लगीं तथा नाचती हुई सुविलासनियाँ हरिनन्दन प्रद्युम्न के यश की प्रशंसा करने लगीं । । 282 (3) 1-2. अ. 13. अ. से। 4. अ. 'चलण (3) कामदेव प्रद्युम्न की वसन्त एवं ग्रीष्म कालीन क्रीड़ाएँ, वसन्त एवं ग्रीष्म ऋतु वर्णन द्विपदी — "वह रतिवर प्रद्युम्न - अपने मन में जिस-जिस वस्तु की कामना करता है, वह उसे स्वतः प्राप्त हो जाती है। कहो, कि जिसका मित्र (स्वयं) पुण्य हो, भुवनतल में उसे क्या दुर्लभ रहता है ? " । । छ । । वह सोने चाँदी के स्तवक - मिश्रित चन्दन का लेप करता था । प्रतिदिन विविध कुसुम-रज का सेवन करता था और सूर्यकान्तमणि प्रदत्त अर्धतोला प्रमाण मुक्तासार ( मोतियों की भस्म ) का सेवन करता था। पर्याप्त लम्बा कण्ठहार धारण करता था । हिन्दोले में लीलापूर्वक रमण करता था, उसी समय कोकिलों में पंचमस्वर का संचार करता हुआ, अभिनव किसलय समूह को दिखाता हुआ, युवतिजनों में कामाग्नि जगाता हुआ, बामांग, दक्षिणांग एवं पृष्ठांग रूप त्रिविध पवन का संचार करता हुआ, कोकिलाओं के कण्ठ को मधुर बनाता हुआ उस कामदेव — प्रद्युम्न को सुख देने वाला मधुकाल – वसन्त ऋतु का समय आ गया। आकाश, यक्ष द्वारा धोए गये शुभ्र वस्त्र के समान हो गया, कमल-समूह चन्द्रकिरणों के समान सुशोभित होने लगा, सरोवर स्वच्छ एवं शीतल जल से सुन्दर दिखायी देने लगे, मल्लिकापुष्प सरस लगने लगे, उनकी सुगन्धि कस्तूरी की परिमल से मिश्रित हो उठी । कामरस में (2) (3) समुद्र (4) नीनानि । (5) भिल्लणीभिः । ( 3 ) (1) समूह नस्तवकेन । (2) उनसे मुक्ताफलै = अर्द्ध तोला प्रथ मुन्तति । (3) कन्रलपत्र | (4) त्रामांग : दक्षिगांगवृष्टी मद संता स्निग्ध सुगंधन (5) कोकिला । (6) बसत ।
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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