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महाका सिंह विरल पज्जृण्णचरित
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अइ उच्छवइ सयण परिओसई पड़ह-सद्द-मंगल गिग्घोस. । प्रत्ता— रूवेण विवाहाणंतर णिय वहिणिहिं कम-कमल णवेविणु। जं अविणउ किन माइ मए तं खमेहि जंपिउ विहसेविण ।। 281।।
(21 दुबई मंति महंत सुहड सेणावइ सरयण-कोस-सप समं।
___ महु रज्जं समप्पि मयणस्स अहं सेवेमि तुव कम"।। छ।। ता जंपिउ भीसम णिव दुहियइँ सत्तावीस जोयण मुहियइँ । मथणु-संवु जे तुव आणायर णंद-वड्ढणिय पुरवरे भायर। सीराउहइँ रूउ मोक्कल्लिउ गउ ससेण्णु णव-णेह-रसोल्लिउ । णिय-मंदिरे साणंदु पइठ्ठल उर प्रमाणे हरिकीढ़े णिविट्ठा। एत्तहे जुवईयण-मण-सल्लहो को वण्ण३ विलासु जगमल्लहो। कामिणि कर-चालिय सिय-चमरहिं थुन्वंतउँ णर-खेयर-अमरहिं । गिज्जंतउ णारय तुंबु रहमि कीलावसु वियरतउ पुरहिमि।
का पाणिग्रहण अनेक उत्सदों (नेग-दस्तूरों) के मध्य स्वजनों के मंगल-घोष तथा पटह – वाद्यों की छनियों सहित शम्ब के साथ भलीभाँति कर दिया। घत्ता--- विवाहोपरान्त उस रूपकुमार नामक विदग्ध राजा ने अपनी बहिन के चरण-कमलों में नमस्कार कर
हँसते हुए कहा – हे माई, मैंने जो तुम्हारी अविनय की है. उसे क्षमा करो।" ।। 281 ।।
राजा रूपकुमार प्रसन्नचित्त होकर वापिस लौट जाता है। प्रद्युम्न अपने विमान से
सदल-बल क्रीडा हेतु निकलता है द्विपदी- “मन्त्री, महान् सुभट, सेनापति, सैकड़ों रत्न युक्त कोष के साथ-साथ अपना राज्य मदन को सौंप
___ कर मैं तुम्हारे चरणकमलों की सेवा करूँगा।" ।। छ।। तब 27 नक्षत्रों के स्वामी – चन्द्रमा के समान मुखवाली भीष्म राजा की पुत्री --- रूपिणी उससे बोली-- "नगर में आनन्दवर्धक मदन और शम्बु ये दोनों ही भाई तुम्हारे आज्ञाकारी हैं।" सीरी (बलभद्र) आदि ने उस रूपकुमार को विदाई दी। नवीन स्नेह के रस में सराबोर वह रूपकुमार भी सेना सहित वहाँ से चला और अपने भवन में सानन्द प्रवेश कर उर प्रमाण सिंहासन पर बैठ गया और इधर युवतिजनों के मन में सालने वाले उस जगद के मल्ल —प्रद्युम्न के विलासों का वर्णन कौन कर सकता है? कामिनियों के हाथों द्वारा चालित शुभ्र-चमरों से युक्त, मनुष्यों, खेचरों एवं देवेन्द्रों द्वारा स्तुत तथा नारद की तुम्बुरु (वीणा) द्वारा गीयमान वह प्रद्युम्न क्रीडावश नगर में भ्रमण करता हुआ सरोवरों, नदियों, बनों, उपवनों, ग्रामों, मनोहर सीमाओं वाली उभय
(2) (1) : (2) ; .