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________________ 304] महाका सिंह विरह पज्जुण्णचरित 114.23.12 घता- दंडाली हूयउ सयलपुरु अइविंभियउ लोउ जूरइ मणे।। कोलाहलु गहिर समुच्छलिउ भिडिउ वियन्भु वि मायंगहो रणे ।। 279 ।। सहुँ सेण्ण-साहिवि तुरंतउ किर उच्छालिउ रूउ समरंगणे भुक्क सविज्ज पबचें धाइय जालावलि-जलंत गय-कत्तहँ कय इंगाल-पुंज रह-वरसय णर-परिंद तण्हई ऊणल्लिय पय) पणठ्ठ विहडप्फड कंपइ धूमा उल समाण परिरक्खइ अइ आरिठु भणेवि विहुणेवि सरु । रणे वियब्भु सवरहिं णिरुद्धर झुरंतहँ परियण सूसयणहँ दुद्धर-सर-धोरणि पेसंतउ। ता रइरमग चिंतिउ णियमणे । हववहा लेसई काहमि णमाट्य । फुट्ट-तडत्ति वंस धय- कृत्तहें। पक्खर पज्जलंत लोटिट्य स्य। जीय विमुक्क थक्क उ चल्तिय । पुक्कारइ कहिं गछहु जंपइ। पिण्य-णिय दविणहो कारणे कखई। होसइ किंपि चवहिं हयण णिरु । उरे चप्पेवि चोरु इव वशउ। माण-विमुक्खहँ मउलिय वयणहूँ। 10 घत्ता- नगर के समस्त जन चाण्डाल हो गये। लोग अत्यन्त आश्चर्य में पड़ गये और मन में झूरने लगे। वहाँ बड़ा भारी कोलाहल उठा तथा विदाध रूप राजा भी रण में उन मातंगों से भिड़ गया ।। 279 ।। (24) विदग्ध राजा रूपकुमार एवं उसकी दोनों पुत्रियों का प्रद्युम्न एवं शम्बु द्वारा अपहरण विदग्ध राजा रूपकुमार अपनी सेना के साथ तैयार हो गया और तुरन्त ही दुर्धर बाणों की पंक्तियाँ छोड़ने लगा। इस प्रकार उसने समरांगण को ऊपर उछाल दिया। यह देखकर रतिरमण अपने मन में चिन्तित हो उठा। उसने अपनी विद्याशक्ति छोड़ी और प्रपंचपूर्वक दौड़ा। उसने ऐसा अग्निवेष धारण किया कि वह कहीं भी समाया नहीं। गजों के पात्र ज्वालावलि से जलने लगे। ध्वजाओं एवं छत्रों के बाँस तड़तड़ा कर फूटने लगे। अंगारों के समूह बनकर रथों पर बरसने लगे। घोड़ो के पलान-वस्त्र जलने लगे और घोड़े लोटने लगे। नर एवं नरेन्द्र प्यास से तड़फने लगे। वे प्राण छोड़ कर निश्चेष्ट निश्चल हो गये। प्रजा हड़बड़ा कर, काँपती हुई नष्ट होने लगी और पुकारने लगी कि- "कहो कहाँ जायँ? धुएँ से व्याकुल होकर भी अपने-अपने द्रव्य की सुरक्षा की आकांक्षा से अपनी सुरक्षा का प्रयत्न करने लगे। किन्तु स्मर-- प्रद्युम्न गे अति अरिष्ट कहकर सभी को विधुनित कर डाला। तब बुधजन कहने लगे कि अब क्या होगा? उन चाण्डाल रूप सखाओं ने रण में उस विदग्ध राजा को घेर लिया तथा उसकी छाती को चौप कर उसे चोर की तरह बाँध लिया। तब उसके परिजन झूरने लगे। स्वजन मान से विमुक्त हो गये तथा उनके मुख बन्द हो गये। फिर दोनों पुत्रियों को हरकर तत्क्षण ही वे दोनों 124) 1.4 चु। (24) (1) अग्निवरेण । (2) प्रजा। चारडल-रुपसला।
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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