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________________ 35 14.21.121 मलाकर सिंह विरद्दउ पज्नुण्णचरिउ [301 साला सुरुवं गउर हरि दुग्गमे ह-मग्गे णापर-जण संगमे। पइसेष्णुि घिउ वारि अणिदहो पडिहारइँ दक्वविउ परिंदहो। अबलोइ3 सह-मंडचे राणउ भीसम तय रूउ णामाणउ। परिमिउ णरवरहँ पियरह दुहहरा पशवइ उडु-गणेहिं छण-ससहरु । पणवतण तेण आहासिउ देव-देव तुव भइणिएँ पेसिउ। करि महाघ-मई जायक्लोयहो दरिसिय सयणत्तणु वहु भोयहो। माहरियाहें देहे उप्पण्णउ वइयंभी विचित्त वे कण्णउ । देहि पदम मयणहो महो तणयहो संवुहि तहब दुइज्ज सवियणहो । तं णिसुणेविणु हसिउ समच्छरु थिउ रउद्दणं मीण सणिच्छर । जंघई अइ विरुद्ध रोसारणु । भो रूवणिहि णामु मा चवि पुणु। वंधव पियर सयण अबमाणिणि जा अहिलसिया पिम्हो थिय माणिणि । फवणु कण्हु हलहरु को भण्णई भयणु स संबु कवणु पहु मण्णइँ । वीर चंडाल सुबहँ गिय दुहियउ देमि ण ताहँ जाहि मइँ कहियउ। धत्ता .इय विरस वयण बेहावियउ दूउ पियत्तु पत्तु णिय पुरवरु। विण्णविउ ते तं रूविणिहिं जई भायरहँ वुत्तु' णेहब्भरु ।। 277 ।। 15 किया। वहाँ उसे नरेन्द्र के प्रतिहारी ने देखकर सभा-मण्डप में भिजवा दिया, जहाँ उस दूत ने भीष्म राजा के पुत्र "रूपकुमार" इस नाम से प्रसिद्ध राजा के दर्शन किये। दुखहारी वह राजा अपने आसपास अनेक राजाओं से उसी प्रकार घिरा हुआ बैठा था, मानों उडुगणों से पूर्णमासी का चन्द्रमा ही घिरा बैठा हो। उसे प्रणामकर उस दूत ने कहा—"हे देवाधिदेव, मुझे आपकी बहिन ने यहाँ भेजा है और कहलवाया है कि. . "महार्घ मति, विविध भोगैश्यं वाले यादब लोगों के प्रति अपनी धनिष्ठता दिखाइये । आपकी देह से माधवी एवं वैदर्भी नामकी दो विचित्र (सुन्दर) कन्याएँ उत्पन्न हुई हैं। उनमें से प्रथम पुत्री मेरे मदन – प्रद्युम्न को तथा दूसरी पुत्री मेरे विनयशील शम्बु को दे दीजिए।" दूत का वचन सुनकर रूपकुमार मत्सर भात्र से हँसा और फिर उसी प्रकार रौद्र रूप धारण कर लिया. जिस प्रकार मीन राशि का शनीचर रौद्र रूप धारण किये रहता है। पुन: क्रोध से तमतमाकर वह अत्यन्त विरुद्ध स्वर में बोला—"हे दूत, उस अहंकारिणी रूपिणी का नाम मत लो, जिसने अपने बन्धुबान्धवों एवं स्वजनों को अपमानित कर स्वयं अपने ही अभिलषित प्रेमी का हाथ पकड़ा। कौन है वह कृष्ण, और हलधर किसे कहा जाता है? ये मदन एवं शम्बु भी कौन माने गये हैं? हमारी दोनों पुत्रियों के लिये चाण्डाल अच्छे माने जा सकते हैं किन्तु जहाँ तुमने मुझे देने को कहा है वहाँ नहीं दूंगा।" पत्ता- इस प्रकार रूपकुमार के विरस वचन सुनकर वह दूत अपने नगर पापिस लौट आया और उसने रूपिणी को वह समस्त वृत्तान्त कह सुनाया जो उसे उसके स्नेही भाई ने कहा था।। 277।। 121) I. अ. मुक्क। CIL(Ji कोट। 12) शिलपि।।
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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