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14.20.4]
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ates सिंह विरह पज्जुष्णचरित्र
ले हत्यु विमोक्कलि महंतु पत्तउ रहणेउर-चक्कवालु चंदोरु खगवइ तासु धरिणि 'ससिलेहा णामें णिरु सुरूव' मंडलिय-मउड संघडिय पाउ अत्थाणे णमंतु विसो प
पत्ता- अप्पियउ लेहु विणयायरेण लेवि तेण लहु वायउ ।
तडिवेउ णाम गउ हु तुरंतु । जहिं पहु अगइ र नियर कालु । आसत्त करिंदो णाइँ करिणि । णामेणाद्धरि तासु धूत्र । उवविउ खगवइ रायराउ । अब्भागउ पयड तहँ वइछु ।
परियाणिवि भेउ पहिट्ठएण सच्च दूउ पोमाइउ ।। 275 ।। (20)
भो महो मणे गिक्सर एहु कज्जु जसु जीउ वि दिंतु ण करमि संक इपिवि दूउ विसज्जिऊण पुणु दिष्णु पयागउ झत्ति तेण
आपसु ससहि संपत्तु अज्जु तहो कज्जो धीय रहम्मि एक्क । मणिमय- आहरणहिं पुज्जिऊण । सपिएण सदुहियाँ सहरिसेण ।
(19) 3. अ. तुरंतु । 4-5. अ समिलेन स परिलिज चरतु निरसन ।
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भेजा । वह विद्याधर भी तुरन्त ही आकाश मार्ग से चला और वह रथनूपुर चक्रवाल में पहुँचा। वहाँ चन्द्रोदर नामक खगपति राज्य करता था जो अपने पराक्रम के कारण शत्रु-मनुष्यों के लिए काल के समान था। उसकी गृहिणी का नाम शशिलेखा था, जो अत्यन्त सुन्दर थी। वह उसमें उसी प्रकार आसक्त रहता था, जिस प्रकार हाथी अपनी हथिनी में। उन दोनों के अनुन्धरी नामकी एक पुत्री उत्पन्न हुई। माण्डलिक राजाओं के मुकुटों से संघटित चरण वाले राजराजा खगपति जहाँ बैठे थे, उस आस्थान ( राजसभा) में जाकर उस तड़ित्वेग ने नमस्कार करते हुए प्रवेश किया तथा वह अभ्यागत प्रकट रूप में वहाँ बैठ गया ।
घत्ता
उस (सन्देशवाह तडित्वेग) ने विनय एवं को अर्पित कर दिया। उसने भी उस पत्र
आदरपूर्वक सत्यभामा का वह लेख पत्र उस खगपति चन्द्रोदर 'तत्काल ही पढ़ा। प्रहृष्टमन उस खगपति ने पत्र के रहस्य को समझ लिया। इस कारण सत्यभामा का वह दूत भी प्रमुदित हो उठा। 275 ।।
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अनुन्धरी एवं सुभानु का पाणिसस्कार
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( वह खगपति चन्द्रोदर बोला ) – "हे दूतराज तडित्वेग, यह कार्य मेरे मन में बैठ गया है। अब आज मुझे अपनी बहिन का आदेश भी प्राप्त हो गया है, जिसके लिये कि प्राण देने में भी मुझे शंका नहीं। उसी के निमित्त मेरे घर में यह कन्या सुरक्षित है।" यह कहकर हर्षित होकर उसने उस दूत को मणिमय आभरणों से सम्मानित एवं विसर्जित कर तत्काल ही प्रयाण भेरी बजा दी । सामन्त, मन्त्री भट्ट, श्रेष्ठ रथ, हथ, यान, विमान एवं