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महाका सिंह विरहज पहुण्णचरित
114.18.11
मण्णिय मंतेहिं तक्खणे
णिगायं बलं सहरिसं मणे। तुरय-दुरय-रह-सुहड असरिसं छत्त-चमर-धय-क्रय णह किसं । संवु सेणु वढिसु सविक्कम ता सुभाणु णिम्मह वि उज्जमं ।
गउ मुएवि छलु णिय णिहेलणं दित्त-चित्त सोहा णिहेलणं । घत्ता- अहि णिदिवि आलिंगिउ हरि वलेइ जं चवइ सुउ ।
उच्छंगे णिवेसिउ सहरिसहिं वहु विण्णाण-कला-जुउ ।। 274 ||
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(19)
हार शालगड परिवार बुहेश
णं तरुत झलुक्किउ हुव बहेण । कमलु व हिम-हउ परियलिय' छाउ थिउ तह विवणम्मणु कसण काउ। णउ पहाणु-विलेवणु एक्कु भोउ ण हसइ ण रम'इ ण करइ विणोउ । तं णियवि सुकेसुयाएँ चविउ सुउ सुट्ठ माण-कुंजरेण खविउ । परिहव हुवासु उल्हाइ जेम णिय तणयहो मणे तं करमि तेम।
मन में तत्काल ही स्वीकार कर लिया और सहर्ष अपनी-अपनी सेना निकाली। असाधारण तुरंगों (घोड़े), द्विरदों (हाथियों), रथों, सुभटों, छत्रों, चमरों एवं ध्वजाओं से नभ को भी कृश कर दिया गया। इस प्रकार शम्बु की सेना विक्रम पूर्वक बढ़ती रही। तब सुभानु ने भी अपने उद्यम का मन्थन किया और अपनी अवमानना देखकर तथा अपनी पराजय का अनुभव कर छल-कपट त्यागकर भाग खड़ा हुआ। घत्ता- यह देखकर हरि कृष्ण ने अपने उस पुत्र – पाम्बु का अभिनन्दन किया, आलिंगन कर बलैयाँ ली
और चुम्बन किया, फिर विविध विज्ञान एवं कलाओं से युक्त उसे हर्षपूर्वक अपनी गोद में बैठा लिया।। 27411
(19) पुत्र सुभानु की पराजय से निराश होकर सत्यभामा उसका मनोबल बढ़ाने के लिए दूसरा उपाय खोजती है ___ इस प्रकार मुत्र के परिभव के दुःख से वह सत्यभामा उसी प्रकार झुलस गयी जिस प्रकार अग्नि से वृक्ष। उसके शरीर की कान्ति हिमाहत कमल के समान हो गयी। वह विवर्ण-मन (उदास-चित) एवं कृशकाय हो गयी। न तो वह स्नान ही करती थी और न विलेपन और न कोई भोग ही भोगती थी; वह न हँसती थी, न बोलती थी
और न विनोद ही करती थी। उस अपने (उदास) पुत्र को देखकर वह सुकेत-सुता (सत्यभामा) अपने मन में बोली-"मेरा पुत्र (सुभानु) शम्बु के मान रूपी कुंजर से नष्ट हो रहा है। जिस प्रकार (हवा से) अग्नि बढ़ती है उसी प्रकार परिभव से मेरे पुत्र का सन्ताप भी बढ़ता जा रहा है। अतः अपने पुत्र के मनोबल को बढ़ाने के लिये में कोई उपाय करूं।" इस प्रकार विचार कर उसने एक महान् पत्र लिखकर तड़ित्वेग नामक विद्याधर को
(18) 11. आकाश (19) (1ोभा ररित।
(19) !. अ. 'मे':
। 2. अट'।