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________________ 42] महाफा सिंह विरहाउ पज्जुण्णचरिउ है तथा वह उसके द्वारा शीतकाल की इतनी तीव्र भर्त्सना कराता है कि उसे केदार की ओर बलात् पलायन करना पड़ता है। उसके पीठ फेरते ही जो प्रियतम परदेश गये हुए थे, उन्हें अपनी प्रियतमाओं का स्मरण हो उठता है और वे लौट-लौट कर घर वापिस आने लगते हैं। (6/16) ___इस प्रसंग में कवि सिंह पर महाकवि कालिदास के मेघदूत का प्रभाव लक्षित होता है तथा कवि सिंह के इस वर्णन का प्रभाव सम्भवत: कवि जायसी के पद्मावत पर पड़ा है। जायसी ने भी शरद्काल का वर्णन करते समय 'बतलाया है कि पूस के महीने में इतना जाड़ा पड़ने लगा कि सूर्य भी लंका में जाकर आग तापने लगा। सिंह एवं जायसी के वर्णन में अन्तर केवल इतना ही है कि कवि सिंह का शीत केदार पर्वत पर चला जाता है। जायसी का सूर्य सिंहल में प्रवासी होकर आग तापने लगता है किन्तु दोनों की कल्पना का मूल उत्स समान ही है। ___ एक प्रसंग में तो कवि की भावुकता देखते ही बनती है, जहाँ उसने एक विशिष्ट-पूजा के समय पुष्पार्पण करते समय कल्पना की है कि यह पुष्पार्पण नहीं, किन्तु उसके बहाने विशिष्ट पूजा के अवसर पर प्रकृति द्वारा समग्र वसन्त-ऋतु का ही समर्पण है। (15/8/4) प०च० में वसन्त आगमन के अन्य उपादानों की सूचनाएँ भी यथास्थान उपस्थित की गयी हैं। यथा - आमों में बौर लगना (6/17/1), वनस्पति का फूलना (616117), प्रोणितपतिकाओं पनि जाति मानी लनों की मदोन्मतावस्था (6/17) आदि-आदि । ग्रीष्म – ग्रीष्म ऋतु का उल्लेख कवि ने सीधे न करके प्रद्युम्न की क्रीड़ाओं एवं तपस्या के माध्यम हो किया है। प्रद्युम्न को ग्रीष्म ऋतु में चन्दन-समूह तथा अन्य शीतल पदार्थों के लेपन, नारियल, द्राक्षासव, शर्करा, केला, गाढ़े दही या कर्पूर निर्मित सुगन्धित पानकों के सेवन तथा लतागृह में निवास करते हुए चित्रित किया गया है (15/3/11-13)। तपस्या-वर्णन-प्रसंग में भी कवि ने ग्रीष्म ऋतु का जो वर्णन प्रस्तुत किया वह श्रमण-तप का एक बिम्ब उपस्थित करता है। मुनिगण ग्रीष्म-काल में दिगम्बर रूप से गिरि-शिखर पर समभाव से प्रखर-सूर्य की किरणों को सहते थे, जिसके कारण उनका शरीर कृश एवं जल-मल से लिप्त हो गया था (7/6/J-2, 15/23/18)। वर्षाकाल -- पच० में अग्निभूति-वायुभूति की अन्तर्कथा के प्रसंग में वर्षा-ऋतु का यथार्थ चित्रण किया गया है। (4/16) इस प्रसंग में वर्षा ऋतु के आगमन पर बादलों का लटक जाना, मेघों की गर्जना, बिजली की कौंध, घनघोर-वर्षा तथा उसमें पृथिवी एवं आकाश का एकमेक हो जाना तथा बाढ़ का आ जाना और लगातार सात-दिनों की वृष्टि से पशु-पक्षियों की विकलता का हृदय-स्पर्शी वर्णन पाया जाता है (4/16/12-18)। मुनियों के तप-वर्णन प्रसंगों में भी वर्षा-ऋतु का वर्णन हुआ है (15/23/19)। इसी प्रकार कवि ने हिम, शिशिर (3/4, 9/9 15/4/9) एवं शरद (15/4/8) के भी सुन्दर वर्णन किए हैं। उषःकाल-सूर्योदय ...- सूर्योदय का वर्णन हर्षोल्लास का प्रतीक माना गया है। कवि ने उसका वर्णन करते हुए कहा है कि – तम रूपी रज का प्रभंजक, जनरंजक, अरुणाभ-सूर्य जब निषधाचल के शिखर पर उदित हुआ, तब वह ऐसा प्रतीत होता था, मानों कंकेलि का लाल-पुत्र ही हो, अथवा दिग्गजों पर लाल-छत्र ही तना हो अथवा मानों पीन-पयोधर नारियों का मुख-मण्डन करने वाले कुंकुम का पिण्ड ही हो (6/22/6-8)। कवि का यह वर्णन उद्दीपन के रूप में प्रस्तुत हुआ है। 1. पद्मावत, 350/।।
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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