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________________ 296 5 10 महा सिंह विरह पज्जुण्णचरिउ (17) (17) 1. अरण'। 2. अ. यां। 3. 'भि । स सच्चहाम ताम को जुत्तिया वरं वरप्पुहाए (2) जस्स अंबर सुवण्ण अट्ठ-कोटि तु ए पदसिया पसंस बिज्ज धामिणं फुरंतया सुवत्थ विविह सुद्धया विणिज्जियं धणंपि तत्थ तेण जं पमाण माय दिव्व-कणय- कोडिहिं उ जण कित्ति - वेल्लि कंदउ साविकको गुण वायवंत इलाइ लोउ होइ तह णिरुत्तउ । थिउ सुभाणु मलिय माणु असि य आणणो भणेइ सच्चहा महोउ कउतुकं पुणेः । विचित्तयं गहेवि पसाहणं करेहु तुरिउ बे वि तुरिय वाहणं । जिगेइ जस्स अस्सु जो ण हरइ जणमणं सोढेइ तस्स सुप्पयासु एक्क कोड़ि वर धणं । ल (5) (14.17.1 1 ) चवेइ होउ' " 'एणयवहिणित्तिया । विहिप्पए वि तेण तस्स कव्वुरं । समयः जिए। सुसंवृणा सिणिद्ध दित्ति कामिणं । सुभाणु वत्थes aणे णिसिद्धिया । गहेवि दीण लोयविंद बंदिणाण जं । पया ( ) असेस पूरिया क्या दिहिं । समास अधिवस्त कंदउ । (17) शम्बुकुमार दिव्य वस्त्रों की प्रतियोगिता में भी सुभानु को पराजित कर देता है। तब निरन्तर कोप से युक्त रहने वाली उस सत्यभामा ने कहा - " अब यह विधि अपनायी जाय कि - " जिस श्रेष्ठ (व्यक्ति) की उत्तम प्रभा से उसका वस्त्र ( अम्बर) कर्बुर नामक रत्न की प्रभा को जीत लेगा उसे आठ करोड़ स्वर्ण मुद्राएँ समर्पित की जायेंगी।" यह कहकर उसने जगत को जीतने वाले दिव्य वस्त्र उस ( शम्बु) को दिखाये । तब उस कामदेव प्रद्युम्न ने भी अपनी प्रशंसनीय विद्या का चमत्कार कर दिखाया। उसने शम्बु को अत्यन्त स्नेहपूर्वक दैदीप्यमान काम्य (अभिलषित) सुन्दर एवं विविध प्रकार के सुन्दर वस्त्र प्रदान किये। शम्बु के उन स्फुरायमान वस्त्रों ने सुभानु के वस्त्रों की रुचिरता को क्षण भर में समाप्त कर दिया। इस प्रकार उस शम्बु ने आठ करोड़ स्वर्ण मुद्रा वाले उस दिव्य धन को भी जीत लिया और उसे लेकर धैर्यशाली ने दीन-हीन एवं बन्दीगणों को दान कर दिया, जिससे समस्त प्रजाजनों की इच्छाएँ पूर्ण हो गयीं । कीर्त्ति रूपी बेल के कन्द के समान वह शम्बु अपनी माता तथा अन्धकवृष्टियों की आशाओं का पुंज था। उसकी जगत में स्तुति की गयी । वह विक्रमशाली अष्टगुणों से युक्त तथा निरन्तर दानवीर था। उसके कारण पृथिवी के लोग धन्य हो उठे । धवलामन उस सुभानु का मुख अपनी पराजय के कारण मलिन हो गया। यह देखकर सत्यभामा बोली - "मेरा एक और कौतुक हो । " विचित्र शरीर वाले दो घोड़ों को तुरन्त तैयार करो। जिसका घोड़ा जन-मन का हरण नहीं कर पायेगा । ( वह एक कोटि मुद्रा हार जाएगा) और जिसका घोड़ा जीतेगा, वह उससे एक कोटिवर धन प्राप्त करेगा । (17) (1) पूत (2) प्रभया (3) प्रज्ञा (4) मातास वृक्षस्य (5) अश्व ।
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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