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महामद सिंह घिर पज्जुण्णचरित
[14.15.4
पं जायवकुल णह-ससि-दिणयर पई पच्चक्ल वे वि मयणहो सर । णं णिय जणशिहिं आसा-तरुवर णं केसव कित्तिहे विण्णि वि कर। मेल्लेविणु सिसु-बउ सुह-सायर हुव-जुवाण विण्णाण कलायर"। मउड कुंडल वरहिं बिहूसिय कडिसुत्तय कंकणहिँमि भूसिय। विपिणवि जुव इंयण मणमोहण विवि पडिभड भइ-णिरोहण । रहवर-हय-गइंद वाहतिवि
विण्णिवि सह हिंडति पडतिवि। ता एक्कहिं आणंदिय पियरहँ पारंभियउ जूउ-विहि कुमरहूँ । स धण छोह णिवडण दुह-तत्तउ संवु कोडि सोवण्णहँ जित्तउ। परियत्तिउ सु दुम्मिय मणु मउला वेवि वयणु कुंचेवि तणु । धत्ता- गउ संदुकुमारु पहिट्ठमणु णिय जणणिहें आवासहो। सहयर सरहिं परिवारियउ छणउडूवई पह भासहो 11 2714।
(16) एवहिं विलक्ख गय सच्चहाम अस्थाणे विण्हु-दल पुरइ ताम |
वे दोनों प्रत्यक्षत: मदन के बाण ही हों अथवा मानों अपनी-अपनी माता के आशा रूपी वृक्ष ही हों। अथवा मानों वे दोनों ही केशव की कीर्ति रूपी दो हाथ ही हों। सुख के सागर वे दोनों ही अपना शैशव व्यतीत कर विज्ञान एवं कलाओं के धारी युवक हो गये। मुकुट एवं कुण्डलों से विभूषित तथा कटिसूत्र और कंकणों से सुशोभित वे दोनों ही युवतिजनों के मन को मोहने वाले और शत्रुभटों के भंड (कलह) को रोकने वाले थे। वे रथवर को जोतते घोड़ों पर सवारी करते और गजेन्द्रों पर आरूढ़ होते थे। इस प्रकार वे दोनों साथ ही साध घूमते-भटकते थे। तभी एक दिन माता-पिता को आनन्दित करने वाले उन दोनों कुमारों ने द्यूत-विधि आरम्भ कर दी। अपने धन के विछोह (जुए में पराजय के कारण सुभानु कुमार) दुःख से सन्तप्त हो उठा। शाम्बुकुमार ने उससे एक कोटि सुवर्ण-मुद्राएँ जीत ली। इस कारण सुभानु का मन भीतर ही भीतर घुटने लगा। अपना माथा नीचाकर तथा शरीर को संकुचित कर रहने लगा। घत्ता- तारा-नक्षत्रों के बीच में सुशोभित पूर्णमासी के चन्द्रमा के समान वह आम्बुकुमार अपने सैकड़ों सहचरों के साथ प्रहृष्टमन होकर अपनी माता के आवास पर गया ।। 271 ।।
(16) मुर्गे की लड़ाई में पराजित कर शम्बु, सुभानु के सुगन्धित द्रव्य को भी अपने विशिष्ट
___सुगन्धित्त द्रव्य से नष्ट कर देता है सुभानु कुमार की पराजय के कारण सत्यभामा बिलखती हुई आस्थान (राज्यसभा) में बैठे हुए विष्णु एवं बलदेव के सम्मुख गयी और (जाम्बवती के मायावी सुपुत्र की) गर्दा करती हुई बोली—“जाम्बवती के मायावी
(15) (1) चंद्र।