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________________ 2921 10 15 महाकड सिंष्ठ विरइज पन्जुण्णचरिउ ता अच्चुव च दहन्भतरे अविरल पुलयइँ 'फुल्लिय देहइँ फेडिवि अंगुली (4) करसाहहो दरिसाविउ सरूज णिय - णाहहो अक्स्खिउ 'णिसुणि देव सुहसार हो यत्ता-— जंववइ णियवि कर पिहिवि मुहुँ मणेवि भिउ नारायण । एउ कहिंमि पवंचु ण दिट्ठ मई तिहुवण चोज्जुप्पायणु । । 269 ।। (14) सुर-असुरहँ किण्णरगण दीसइ पिए जंत "हो माहप्पु पसंसमि किर णव णलिण दीहदलणेत्तहे थिउ अवयरेवि णाइँ समदलु सरे । रइ विरामि जिय रइ तणु सोहई । शिरु णिम्मल जह-मणि रुइराहहो । रिउ एणयहँ रणंगणे वाहहो । विलसिउ एहु दुक्खु धणुधारहो । असरिसु सर पवंचु किं तीसइ । गुहउँ दीवं दंसमि (2) | भयणुप्पाइय परिहव तेत्तहिं । (13) 4. अ. पुछिए। 5. मि । उसी समय अच्युत स्वर्ग से चयकर वह (कैटभ का जीव) देव उस जाम्बवती के गर्भ में अवतरित हुआ । 'वह ऐसा प्रतीत होता था मानों सरोवर में सहस्रदल — कमल ही अवतरित हुआ हो । प्रफुल्लित देह वाली उस जाम्बवती का शरीर अविरल पुलकों से भर गया। रति विरमित होने पर उसकी देह कामदेव की पत्नी रति के समान सुशोभित होने लगी। उस जाम्बवती ने अत्यन्त निर्मल प्रभावाली तथा मणियों से जटिल उस सुन्दर अंगूठी को अँगुली से निकाल कर रणांगण में शत्रुरूपी मृगों के लिए व्याध ( बहेलिया ) के समान अपने नाथ कृष्ण को अपना वास्तविक रूप दिखा दिया और कहा • सुख के सारभूत हे धनुर्धारी, सुनो- "लो तुम अब इस दुख को भोगते रहो।" - 114.13.10 - घत्ता— जाम्बवती को निकट में देखकर नारायण ने विस्मित होकर हाथों से अपना मुँह ढँक लिया - कृष्ण और कहा—* - "त्रिभुवन में चोज (आश्चर्य ) उत्पन्न करने वाला ऐसा प्रपंच मैंने कहीं भी नहीं 'देखा " ।। 269 ।। - (14) - प्रपंच का रहस्य खुलने पर नारायण • कृष्ण आश्चर्यचकित हो उठते हैं। सत्यभामा के साथ वह अपने घर वापिस लौट आते हैं उस कामदेव - प्रद्युम्न के असाधारण प्रपंच के विषय में क्या कहा जाय ? (सामान्य व्यक्ति की तो बात क्या वह सुर, असुर एवं किन्नरों को भी दिखायी नहीं देता । हे प्रिये, यदि मैं नवीन नलिन के दीर्घ दल के समान नेत्र वाले उस प्रद्युम्न के माहात्म्य की प्रशांसा करूँ तो उसी प्रकार होगा, जैसे मैं सूर्य को दीपक दिखाऊँ । उस मदन कामदेव के द्वारा किया गया पराभव भी वैसा ही आश्चर्यकारक है । सत्यभामा को वह माला भेंट (13) (4) मुद्रिका | (14) (1) प्रधुम्नस्य । (2) सूर्यस्य दीपेन उद्योत ।
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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