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________________ 2901 महाकर सिंह विरहाउ पज्जुण्णचरित [14.12.1 (12) मा वियप्पु घरि राम णियमणे अवय रेमि इह दहमें वार दिणे । इय कहेदि गउ सुरु स-वासहे हार 'ससहर-जोण्ह-भासहे। ता विसज्जि अत्थाणु राइणा हार चोज्ज अणुराय गाइणा। कइवयस्स सेवयहँ सह खणे । चक्कपाणि 'वितंतु णियमणे । पळम बिहे अपि विडोयो पच्छुणिय घर ताम रइबरो । चबइ णियय जणणिहिं णमंतउ पुव्व बंधु महो विहि-विहित्तउ। तुज्झु उवरे अवयरइ तह अहं कमि माइ पाउ मुहिं धीमहं । ता चत्रेइ भीसमहो पहु सुवा गलिण वेल्लहल पवर वर भुवः । णरु कहिं त चक्कवइ माणउ अमरु कहिमि सुरवइ समाणउ । जिणबरोब्ब सरु समु किज्जज्जए तणउँ अवरु किं तुज्झु पुज्जए। होउ मज्झु जंववइ पियसही विणयवंत गुण-गण महाणिही। हुव: एहि सुउ तुहुँ पसाएणं णिसुणिऊण जंपिउ समाइणं । (12) जाम्बवती को कामरूप अँगूठी देकर प्रद्युम्न उसे सत्यभामा के रूप के समान बना देता है (वह देव पुन: बोला—) "हे राय, अपने मन में विकल्प धारण मत करो। मैं दसवें दिन यहाँ जन्म लूँगा।" यह कहकर चन्द्रमा की चाँदनी के समान प्रतिभासित होने वाले हार का धारक वह देव अपने निवास स्थान में चला गया। अनुराग-गति वाले उस राजा (कृष्ण) ने हार से आश्चर्य-चलित होकर अपनी सभा विसर्जित कर दी और तत्काल ही अपने कतिपय सेवकों के साथ उस चक्रपाणि ने अपने मन में विचार किया कि-"क्यों न मैं इस हार को अपनी प्रथम पत्नी (सत्यभामा) को भेंट स्वरूप दे दूँ और बाद में अपने घर चलूँ?" ___इसी बीच में रतिवर—प्रद्युम्न ने आकर अपनी माता को नमस्कार किया और बोला—“विधि के विधान से मेरा पूर्वजन्म का एक बन्धु (भाई) है, जो तुम्हारे उदर से जन्म लेना चाहता है। उसके लिए हे माता, मैं ऐसा उपाय कर दूँगा कि उस गर्भ की स्थिति को कोई भी बुद्धिमान नहीं समझ पावे ।" तब कमल-लता के समान उत्तम दीर्घ भुजाओं वाली भीष्म प्रभु की पुत्री—रूपिणी ने कहा- "तुम जैसा नर-पुत्र कहाँ होगा, जिसे चक्रवर्ती भी मानता हो। अमर और देवेन्द्र भी क्या तुम्हारी बराबरी कर सकते हैं? जो स्मर कामदेव (प्रद्युम्न ) जिनवरों को भी सावधान किये रहता है, ऐसा तू अकेला ही मेरे लिए पर्याप्त है, मुझे अब अन्य पुत्र की आवश्यकता नहीं। हाँ, मेरी एक प्रिय सखी जाम्बवती है, जो विनयशीला एवं गुण समूह की महानिधि है। यदि तुम उससे प्रसन्न हो, तो यह देव-पुत्र उसी से उत्पन्न हो (तो अच्छा)।" रूपिणी का कथन सुनकर रतिवर (प्रद्युम्न) ने कहा-- "ऐसा ही होगा। (129 1. ज हरण:'। 2. अ. धि। 3. ब. 'गे। 4. ब. 'गे। 5. ममाया।
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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