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________________ 14.11.12] माकड सिंह विराउ पन्नुण्णचरित [289 (11) अच्चुव सग्गोबरि सजाया सुरवरिंद दिट्छ वरकाया । अणुहुँजेविणु अमयासा सिरि जंबूदीवे भरहखेत्तंतरि। अस्थि विसउ सोरट्छु रदण्णउँ सरवर-सरि-वण उववणरुण्णउँ । तहिं वारमइ-णाम पुरि पायड पडिय रयण णाइँ सा गयघड़। विसइ कस.. कि रूवणियहि पिउन्नरु । ताहँ मणोहरु सुउ विक्खायउ सग्गहो तुव भायरु तहिं आयउ । मुणिवि वयणु जग गुरुहि णमंतउ अमरु पयोहर-वहेण तुरंतउ। गउ अचिरेण जेत्थु ससहोयरु सरिवि सत्त-भवणेह महाभरु। दिणयर-कोडि-किरण इन पहयरु मणिमउ दारु करेबि करे सुरु । सो लहु महुमह थणे पइट्ठ णिहिल परेसर लोयहँ दिउ । घत्ता- जंपइ फुरियारु पहु लइ णरिंद हउँ प. संतोसमि। णिय पियवत्थुच्छले जाहि तुहुँ घल्लेसहि तहे तणुरुहु होसमि ।। 267 ।। 10 (11) ___ अच्युत देव एक मणिमय हार कृष्ण को भेंट करता है वे दोनों अच्युत स्वर्ग में उत्पन्न हुए, जहाँ उन सुरवरेन्द्रों को उत्तम काय वाला देखा गया। अमृताशन देव की श्री को भोगता रहा। जम्बूद्वीप स्थित भरतक्षेत्र में सौराष्ट्र नामका एक सुन्दर देश है। जो सरोवर, नदी, वन एवं उपवनों से आच्छादित है। वहाँ द्वारावती नामकी सुप्रसिद्ध पुरी है, जहाँ (निरन्तर) रत्न प्रकट होते रहते हैं। वह ऐसी प्रतीत होती है मानों वह स्वागत-घट ही हो। वहाँ अर्धचक्रेश्वर प्रभु रहते हैं, जिनका नाम कृष्ण है और जो रूपिणी के पतिवर हैं। उनका प्रसिद्ध पुत्र अत्यन्त मनोहर है। उन्हीं के यहाँ स्वर्ग के मार्ग से तुम्हारा भाई भी आया है।" त्रिजगत के वचनों को समझकर तथा उन्हें नमस्कार कर वह देव मेघमार्ग से तुरन्त ही चला। वह तत्काल ही वहाँ पहुँचा जहाँ उसका सहोदर भाई था। वह महान् स्नेह से भर उठा तथा उसके सात पूर्वभवों का स्मरणकर वह देव करोड़ों सूर्यों की किरणों समान प्रभा करने वाला मणिमय हार हाथों में लेकर शीघ्र ही कृष्ण के राजभवन में प्रविष्ट हुआ जिसे वहाँ उपस्थित समस्त राजा लोगों ने देखा। घत्ता- फड़कते हुए अधरों वाले उस प्रभु-देव ने कहा—"हे नरेन्द्र, मैं आपको सन्तुष्ट करता हूँ। अपनी प्रियवस्तु के छल से वह तुम जिसे दोगे, मैं उसी का पुत्र होऊँगा।" || 267।।
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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