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14.10.2]
महाकर सिंह बिराज पन्जुष्णरित
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विविह-विणोय-कील विरयंतर मयणु ण मुणइँ कालु इय. जंतउ। ता तेत्थु जि अणोक्कु कहागउँ संजायउ वहु सोक्ख णिहाणउँ। अक्कव कइडिहु णाम सुरेसरु सूर सएहि सेविउ परमेसरु । लवणोयहि पमुहेहि रमंतउ
सिरि सयंभु जलणिहि पयलत'उ । गिरि-गुह-दा-उबवण वियरतउ अकिय-जिणेसर-बिंब णमंतउ । दीवस-पुर वर णयर णियंतउ पुव्वविदेह पढम संपत्तउ। विसइ पुक्खलावइ सुपसिद्धी णयरि पुंडरिंकिणि जण-रिद्धी। तहि सीमंधर सामि जिणेसरु समवसरण सहियउ ति जगेसरु । दिउ पाण-पिंडु अमरिंदइँ संथुउ सविणय सुमहुर-सद्द।।
उदविट्ठउ णिय कोठइँ गंपिणु । सुणिउ कहंतु अलोउ-लोउ वि जिणु । घत्ता- बंध-मोक्ख-दब्वाइँ गइ सुहुम पयत्थ थूल णिसइँ। णव-पय णय' धम्माहम्म कह णाण-भेय संहाण सलेस.।। 265 ।।
(10) विविहाहरण-किरण-विप्फुरियउ चवद सुरिंदु विणय-जल-भरियउ। गय भव मज्झु पयासहि साभिय जग णे'सर उत्तम-गइ-गाभिय।
उसी समय वहाँ विविध सुखों की खान स्वरूप अनेक घटनाएँ (कहाणउँ) घटी।
सैकड़ों देवों द्वारा सेवित, परमेश्वर पदधारी तथा सूर्य के समान (तेजस्वी) कैटभ नामका सुरेश्वर लवण आदि प्रमुख समुद्रों में रमण करता हुआ श्री स्वयम्भूरमण समुद्र पर्यन्त पर्वतों, गुफाओं एवं वनों एवं उपवनों में विवरण करता हुआ अकृत्रिम जिनेश्वरों के बिम्बों को नमस्कार करता हुआ, द्वीपों, उत्तमपुरों एवं नगरों को देखता हुआ पूर्व विदेह के प्रथम भाग में आया। वहाँ पुष्कलावती नामके प्रसिद्ध देश में जनों से समृद्ध पुण्डरीकिणी नामकी नगरी थी। वहाँ तीनों लोकों के ईश्वर सीमन्धर स्वामी जिनेश्वर समवसरण में विराजमान थे। उस अमरेन्द्र ने उन ज्ञानपिण्ड प्रभु के दर्शन किये और विनयपूर्वक सुमधुर शब्दों से स्तुति की। फिर वह अमरेन्द्र कैटभ जाकर अपने कोठे में बैठ गया और उन जिनेन्द्र से अलोक-लोक का कथन (उपदेश) सुनने लगा। घत्ता- बन्ध, मोक्ष, द्रव्य, गतियाँ, सूक्ष्म एवं स्थूल पदार्थों का निर्देषा, नव पदार्थ, नव नय, धर्म-अधर्म की कथाएँ, ज्ञान के भेद, संस्थान एवं लेश्याएँ (आदि विषयक प्रवचन) सुने ।। 265 ।।
(10) सीमन्धर स्वामी द्वारा मधु एवं कैटभ के पूर्वभव वृत्तान्त कथन विविध आभरणों की किरणों से स्फुरायमान तथा विनयजल से भरे हुए उस सुरेन्द्र ने कहा--"हे स्वामिन्, उत्तम गति में ले जाने वाले हे जगतसूर्य, मेरे पूर्वभवों को प्रकाशित कीजिए।' तब कन्दर्ग रूपी सर्प के दर्प को
199(3) स्वयम्भूरनप। (4) नैरमादि-नबन,
(9) I. 3. 'ज्जत। (10) 1. ब जपे।