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________________ पहामिद शिराउ पज्जुण्णचरिउ [14.8.5 कुसुमसरहो परिणयणु णिएप्पिगु सच्चहिं दुह-जलणइँ तप्पइ तणु । परिहउ असहतिएँ सुमहतउ विज्जवेउ णामेण तुरंतउ। पेसिउ रयणसंचपुरे मणहरे गो सो रपणचूल खगवइ घरे। सम्माणिउ साणंदु पयंपइ णिसुणि देवपहु पिय'' इय जंपइ । रविकतहें जा धूव सर्यपह दिजउ महो तणयहो मुणि-मण मह । मयर 'वयण-पंति आयणिय लहु णिय सुय तें भाणुहे दिण्णिय । किउ पाणिग्गहु तुट्ठ पहिल्ठ सम्माणिय असेस सयणट्ठ.। घत्ता- ता तिहुअण खोहणु जण-मण-मोहणु सुह-जणंतु गियसयगहुँ । भहुमह पिय परिणिहिं पह जिय तरणिहिं तित्तिदितु विहिंणयण।।। 264 || 10 अणुदियह वि माणतउ सु'हुसरु कित्तिलया छाइय भुक्पोयरु सेविज्जंतु संतु बुह-विंदहिं जुवइ वयण कंजय-रस-महुपरु । पालिय दहविह-धम्म महातरु । सलहमाणु वंदारय) विदहि। परिणय संस्कार से सत्यभामा दुःखाग्नि में तपकर क्षीण होने लगी। अपने महान् पराभव को सहन न कर पाने के कारण उस सत्यभामा ने तुरन्त ही विद्युद्वेग नामक विद्याधर को मनोहर रत्नसंचयपुर भेजा। वह रत्नचूल नामके खगपति के यहाँ पहुँचा। सम्मान प्राप्त उस विद्युद्वेग ने रत्नघूल से हर्षपूर्वक कहा --"हे देव, हे प्रभु, कृष्णप्रिया-सत्यभामा ने कहा है कि-"रविकान्ता (रत्नचूल की पत्नी) की स्वयंप्रभा नामकी जो पुत्री है, उसे महामुनि के समान मन वाले मेरे पुत्र (भानुकर्ण) को दे दीलिए।" उस महत्तर की वचन-पंक्ति सुनकर उस रत्नचूल खगपति ने तत्काल ही उस सत्यभामा के पुत्र भानुकर्ण को अपनी पुत्री स्वयंप्रभा दे दी। तुष्ट, प्रहृष्ट होकर उसने पाणिग्रहण कराया और सभी आये हुए स्वजनों को सम्मानित किया। घत्ता- तब त्रिभुवन को भी भुब्ध करने वाले, जन-मन को मोहित करने वाले तथा स्वजनों में सुख उत्पन्न करते हुए कृष्ण एवं अपनी प्रभा से सूर्य किरणों को जीतने वाली रानियों के नेत्रों को उन दोनों वरवधू रूप कर्ण एवं स्वयंप्रभा ने सन्तोष प्रदान किया।। 264 || (9) प्रद्युम्न भोगैश्वर्य का जीवन व्यतीत करने लगता है। सुरेश्वर कैटभ पुण्डरीकिणी नगरी में विराजमान सीमन्धर स्वामी के समवशरण में पहुँच कर प्रवचन सुनता है वह स्मर (प्रद्युम्न) युवतियों के मुख रूपी कमल-रस का मधुकर बनकर प्रतिदिन सुख भोगने लगा। दशविध धर्म रूपी महावृक्ष का पालन करने वाले उस प्रद्युम्न की कीर्ति समस्त संसार में छा गयी। बुध-वृन्दों द्वारा सेवित, वृन्दारक वृन्दों द्वारा प्रशंसित वह मदन विविध क्रीडा-विनोदों को करते समय बीते हुए काल को नहीं जान पाया 18) 1.अ. घ"। (8) स्प। (१) (1) प्रद्युम्न । (2) देवतादे:
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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