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महाप सिंह विरह पज्जुण्णचरिउ
पारंभिउ तहिं पेछणउ वरु गाइज्जइ - गेउ मनोहरउ काणीण दीण दालिद्दियहँ दालिद्द-छुहाणल-तविम-तणु पीणिय वह तोसिउ पउरजणु इय एसु पयारहिं विहिप ताम
पयडिय वरसु णडु सत्त सरु | हरि - सर-सीरिहि णामाहरउ । मग्गण गण वेयालिय सयहँ । उहाविउ कणय - जलेण पुणु । सम्माणिउ णिहुलु 'सुव्रण जणु ।
आसंधिय दिवस चयारि जाम।
पत्ता -- तइलोय पियामहु णाणहरु काम-मोह-भय- वज्जिउ ।
(7) 3. अ. मुख्ण।
सो सिव- सरि सह इव हंसु जह सो जिण भत्तिएँ पुज्जिउ ।। 263 ।।
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इय संजाए विवाहे रेसर गयणिय णि णयरहो आणंदइँ दुक्खु- दुक्खु वि संवरपुर राण सपिउ नसेण्णु सवाहणु जामहिं
आउच्छिवि हरि-वल परमेसर । कुमुद पाइँ वियसाविय चंदइँ । समसायवि सलहेवि अइणाणउँ । मोक्कलिउ उ खगवइ तामहिं ।
(दृश्य-नाटक) प्रारम्भ हो गया। नव रसों का संचार करने वाले नाटक एवं सप्तस्वर वाला संगीत सुनाई पड़ने लगा। हरि, स्मर ( प्रद्युम्न) सीर (बलदेव) के नाम ले लेकर के मनोहर त गाये जाने लगे। दरिद्रता रूपी क्षुधा की भूख की अग्नि सन्तप्त शरीर वाले कानीन (कुमारी कन्याओं से उत्पन्न पुत्र), दीन, दरिद्री, माँगने वाले भिखारियों के समूह तथा सैकड़ों वैतालिकों को स्वर्ण-रूपी जल से स्नान कराया गया। पौर-जनों को खिला-पिला कर खूब सन्तुष्ट किया, समस्त स्वजनों को सम्मानित किया। इस प्रकार लगातार चार दिनों तक वैवाहिक विधियाँ भली-भाँति होती रहीं ।
घत्ता -- त्रैलोक्य के पितामह ( के समान), सम्यग्ज्ञानधारी, काम, क्रोध एवं अहंकार से रहित शिवश्री-.मोक्षलक्ष्मी की सभा के लिए हंस के समान जिनेन्द्र (नेमिनाथ) की भक्तिपूर्वक पूजा की। 263 14
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सत्यभामा प्रद्युम्न - विवाह से पराभव अनुभव कर अपने पुत्र भानु का विवाह रत्नचूल की विद्याधर- पुत्री स्वयंप्रभा 'कर देती है
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इस प्रकार विवाह के सम्पन्न हो जाने पर इसी नरेश्वर, परमेश्वर कृष्ण एवं बलदेव से आज्ञा लेकर चन्द्रमा द्वारा विकसितकुमुद्दों के समान आनन्दित होकर अपने-अपने नगर को चल दिये। मेघकूटपुर के अतिज्ञानी राजा कालसंवर प्रद्युम्न का विवाह देख-देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुए तथा प्रशंसा करने लगे और जब वह खगपति अपनी प्रियतमा, सेना और यान - वाहनों के साथ उस नगर को छोड़कर चला गया, तब उस कुसुमशर – प्रद्युम्न के
(7) (3) नागरीलोकः ।