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महाकई सिंह विष्टज पज्जुण्णचरिउ
[14.6.514.84
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णच्चंति मणोहरु कामिणिहिं
गयवाल-मरालइँ गामिणिहिं। उब्भिय पवणाहय विविह धया 'घूलिय अगेय मय-मत्त-गया। मंडिय सवेय रहवर-तुरया
सुपसाइय भिच्च स सामरिया। गयणगणु छत्तहँ छाइयउ
सिग्गिरि उच्चवणु इव राइपउ । अहिसिंचेविणु इय वहु कर. सुपसाझ्याइँ रइ-रस धरइँ। लागुग्गमे आसपाई कियइँ
णिय पय पिह मुह दसण धियइँ । फेडिउ पडु पाणिग्गहणु किउ साणंदागणु सयणोहु थिउ। घत्ता.- आगार सागि लि लेत्यु जिय चतुएटें जोग हुम्हण।
परिपुण्ण मणोरह सत्थ हुव कुसुमसरहो परिणयण. ।। 262 ।।
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पउमिणिहिमि 'जह पछइ सरा) । ताराहिमि छण-ससि-दिवु जहा णीहरियर वर माइहिं घरहो। पंचमु सए सुबहु संजुयज
वर-वेल्लिहिं णं वेढियउ तरु। दिक्करिणिहिं गउ परियरिउ तहा। अइ विविह महासोहा हरहो। चरियहिं गंपि वइसिवि थियउ।
लगे। एज-गामिनी अथवा हंसगामिनी मन्गेहर कामिमियों के द्वार। नाच किये जा रहे थे। पवन से आहत होकर विविध ध्वजाएँ फहरा रही थीं। अनेक मदमत्त गज भूषित किये गये। तीव्रगति वाले घोड़े एवं रथवर सजाये गये। प्रसन्न चित्त होकर भृत्यगण अपने स्वामी के कार्यों में लीन होकर कार्यरत थे। गगनांगन छत्रों से आच्छादित था। जो मेरुपर्वत के उपवन के समान सुशोभित हो रहा था। इस प्रकार सुप्रसादित तथा रति-रस-धारी उन दोनों वर-वधू का अभिष्क किया गया। लग्नोदय पर दोनों को साथ-साथ कर दिया गया। प्रिया अपने पति के मुख-दर्शन हेतु सम्मुख खड़ी कर दी गयी। अन्तर्पट फेरा गया, पाणिग्रहण किया गया और स्वजन समूह प्रसन्न मुख हो उठे। घत्ता- उस कुसुमशर – प्रद्युम्न के विवाह के अवसर पर विवाह-रस में मग्न जो-जो लोग वहाँ अये, वे
सभी वसुदेव के चर – मधुमथन के द्वारा परिपूर्ण मनोरथ वाले हुए।। 262।।
प्रद्युम्न के वैवाहिक कार्यक्रम जिस प्रकार सरोवर कमलनियों से ढंका हुआ रहता है, वृक्ष जिस प्रकार उत्तम लताओं से वेष्टित रहता है, पूर्णमासी का चन्द्रबिम्ब जिस प्रकार तारागणों से घिरा हुआ रहता है और जिस प्रकार श्रेष्ठ हथिनी को गज घेरे रहता है, उसी प्रकार वह वर – प्रद्युम्न विविध प्रकार की महाशोभाओं वाले माता के घर से अपनी पाँच सौ बहुओं के साथ बाहर निकला और चौरी (विवाह-वेदी) पर जाकर स्थित हो गया। उसी समय वहाँ प्रेक्षण
(6) 3. 4. भू। (01-2. अ. जित पिहेथियज सस्।
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र (2) सत्रमात् ।