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________________ 14.4.3] महाका सिंह विहार पाजण्णचरिउ 1281 तइ खलि भद्दावणु दंसेसमि णिय-चलणहँ तुह चिहुर मलेसमि । दुच्छिय इम वयणहिं किर जामहिं आहासइ सुकेय-सुय तामहि । काइँ वहिणि किर मई पच्चारहि दुत्तयणेण कहहिं कि खारहि। कहिं तुहूं कहिं तुव सुउ कहि आयउ भणु मरदु सुहियए तुव जायउ। णारएण एहु णरु मायारउ मेल्लिउ तुहु वहहि किं गारउ। एम चवंति सच्च वसुएवहिँ वारिय महुमहेण बलएवहिं। धरि कर कमले सच्च भीसम सुब सीलायर सवणय-गुण-जुव। सुमहुर-वयण सुड्छु संजोएवि विणिवि महयर णरहिं पमोयवि । काराविउ खंतब्बु पयत्तइँ महएविउ थियाउ समचित्त। घत्ता- ताम असेसई णरवरई विज्जाहरवइ पुरइँ तुरंत.।। पेसिय हक्कारा णियय णर मयण-विवाह कज्जे सिरिकत।। 259 ।। 15 रणम्मिउ मंडउ विविह पयारहिं कणय-घड़िय घण खंभ सुसारहिं । मरगय-मणि कुंभियहिमि पपडउ पोमराय उच्छालय णिविडउ। जरड पयंग-पयाउ वहतिय पुब भित्तिवर रवि-मणि मयकिय । से तुम्हारे सिर के केशों को रौंदूंगी ही।" इस प्रकार दुर्वचन बोलकर जब वह सत्यभामा दु:ख से स्थित हुई, तभी रूपिणी सुकेत-सुता से बोली-"क्या है बहिन? दुर्वचनों से मुझे क्यों फटकार रही हो? तीखे वचन क्यों कह रही हो?" तब वह सत्यभामा बोली—"तू ही कह कि तेरा जाया पुत्र कहाँ से आया? अरी मरी कलमुही बोल, तेरा पुत्र कहाँ से आ गया? नारद ने यह मायारत नर (तेरे पास) छोड़ दिया है, जिससे तुम इतना गर्व धारण कर रही हो।" जब वह सत्यभामा इस प्रकार बकझक कर रही थी तभी वसुदेव, मधुमथन एवं बलदेव ने उसे निवारा (रोका) तब सत्यभामा ने भी शीलाचार तथा बिनय गुणसम्पन्न उस भीष्म पुत्री रूपिणी के हस्तकमल थामकर, सुमधुर बचनों को भली प्रकार सँजोकर उससे विनय की। इससे महत्तर नरों ने प्रमुदित होकर प्रयत्नपूर्वक उन्हें परस्पर में क्षमा कराया। महादेवी सत्यभामा भी समचित्त होकर स्थित हो गयी। घत्ता- तब सम्पूर्ण नर प्रधानों एवं विद्याधर-पतियों के नगरों को तुरन्त ही श्रीकान्त (कृष्ण) ने मदन के विवाह की सूचना हेतु अपने विश्वस्त हलकारे (सन्देशवाहक) भेजे।। 259 ।। (4) प्रद्युम्न के विवाह-हेतु विशिष्ट मण्डप का निर्माण किया गया विविध प्रकार के सुवर्ण-घटित्त सारभूत ठोस खाभों से मण्डप का निर्माण कराया गया, जिसमें मरकत-मणि के कलशों एवं पद्मराग मणियों से अत्यन्त भरे हुए बालों को स्थापित किया गया। जरठ (प्रलयकालीन) सूर्य के समान प्रताप को धारण करने वाले उस मण्डप के पूर्व-भाग की दीवर सूर्यकान्त-मणियों द्वारा निर्मित की गयी। (4) (1) सूर्यकान्तमणि।
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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