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________________ 280] 5 10 5 महाकर सिंह विरइड पज्जुष्णचरिउ पुणु थणिज्जइ एयहो एव पयंपिवि र तहो दंसिय मयरद्धयह एह कुल उत्ती किज्ज पाणिग्गणुमि एयहो महुमतं वय समिच्छिउ लग्गुग्गनि वासरे णिरु सोहणे जं संभवइ ण सुरवर लोयहो । देव - देव परवरहँ णमंसिय । होउ सइव सुरवइहि णिवती । गिज्जिय चंदक्कवि तणु तेयहो । सहस्रा जोइसिंदु आउच्छिउ । रिक्खे सुहावणे असुह णिरोहणे । बत्ता - विरइउ विवाहु रइ-मणमहहो महुमहेण संवरेणः सु तोसइँ । सिद्धत्थय दहीदूवंकुरहिं जुवईयणु मंगल पिग्घोसइँ । । 258 ।। (3) ताम गव्व-पव्वयमारूढइँ जंपिउ सच्चहाम आयण्णहिं चिट्ठि पिसुणि स-केस रक्खि लहु जइवि धरेइ सुसरुव सुएउ वि अह पइसरहि सरणु यिणाहहो विज्जाहरवइ भुवणे सुसारउ व मागे मच्छर पिवूढइँ । मइम ण तुहुँ तिणसम कहिं महिं । जीवंति ण छुट्टहि एवहिं महु । दसदसार संजुउ बलएउ वि । अव सुवो भानुहि दिढि - वाहहो । जइ हले रक्खइ जण्णु तुहारउ । I [14.2.5 है वह उत्तम देव लोकों को भी नहीं।" इस प्रकार कहकर कालसंवर ने देवेन्द्रों एवं नरेन्द्रों द्वारा नमस्कृत उस कृष्ण के लिए विद्याधर पुत्री रति को दिखाया और कहा कि- "यह रति नामक कन्या मकरध्वज के योग्य कुलीन कन्या है। उसके लिए सदैव ही सुख की कारण बनेगी । चन्द्र एवं सूर्य के तेज को भी निर्जित कर लेने वाले मकरध वज का इस कन्या के साथ पाणिग्रहण कीजिए 1 मधुमथन ने कालसंवर का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया और तत्काल ह्री ज्योतिषीन्द्र से मुहूर्त पूछा। उसने लग्नोदय का अगला दिन अत्यन्त शुभ्र सुहावना तथा अशुभ निरोधक नक्षत्र वाला बतलाया । घता मधुमथन एवं कालसंवर ने शुभ- सिद्धि-सूचक दही, दूब एवं अंकुरों के द्वारा तथा युवतिजनों के मंगल घोष पूर्वक सन्तुष्ट मन से उस मन्मथ का रति के साथ विवाह करा दिया । । 258 ।। (3) वसुदेव, मधुमथन एवं बलदेव आदि की मध्यस्यता से रूपिणी एवं सत्यभामा का बैर भाव दूर हो जाता है 1 प्रद्युम्न का रति के साथ पाणिग्रहण होते ही रूपिणी गर्व रूपी पर्वत पर सवार हो गयी। तब अपने मन में रूपिणी के प्रति मत्सर में डूबी हुई सत्यभामा ने कहा- "सुनो रूपिणी, मेरे समान तुम क्या हो? मैं तुम्हें तृण के बराबर भी नहीं मानती हे धृष्टे, हे पिशुने, तूने अपने केशों की सुरक्षा इतनी जल्दी ही कर ली ? मेरे जीते जी वे इस प्रकार छूट नहीं पायेंगे ? यद्यपि बलदेव एवं दस हजार राजाओं के साथ तुम्हारा सुन्दर पुत्र तुम्हारी रक्षा करने वाला है, तो भी या तो तुम्हें अपने नाथ कृष्ण की शरण में जाना पड़ेगा अथवा दृढ़ भुजा वाले मेरे पुत्र भानु को मानना पड़ेगा । भुवन में सारभूत विद्याधर- पति तुम्हारा पिता भी यदि तुम्हारी रक्षा करना चाहे तो भी हे सखि, ( वह असमर्थ ही रहेगा क्योंकि ) मैं तुम्हारे खल्कट का भद्रपना दिखाऊँगी ही तथा अपने पैरों
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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