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________________ 14.2.4] महाकद सिंह घिरइव पनुपाचरित 1279 15 हउँ णिद्दइव वि सुब-सिसु कीलई दिछु ण रंगमाणु णिय-लीलई। तुहुँ पुण्णाहि संवर वल्लहि परिपालिउ पइँ अमरहूँ दुल्लहि। तुहु महु आसावेल्लिहि वई थिय तुहु महो दालिद्दि णियहिं सइसिय । बिहु रण) वेअ पारि पिवडतहें तुहुँ जि तरंडउ हुउ वुड्डंतिहें। घत्ता- इय सुललिय महु रक्खहँ खेयर मिहुणु थुणेवि गय गावइँ । रूविणि-वसुएवहो सुष्ण पीणियाइँ णिरु सविणय भाव।। 257।। (2) ता संवरेण कज्ज गइ जोइय चिरु वित्तंतु वत्त सुणि वेइय"। 'जहिं-जहिं तुब णंदणु तहिं हय-गय जहि-जहिं तुब णंदणु महिं रह-धय । जहिं तुव णंदणु तहं मणि रयणइँ जहिंतुव णंदणु तहिं वर-सयण। जहिं तुव णंदणु तहि महि-रिद्धी जयलच्छि जि लच्छि वसइँ सिद्धी। रूपिणी ने कहा—"मुझे तो तुम चिन्तामणि-रत्न जैसी भासती हो, मैं तो भाग्यहीना एवं निर्दया हूँ, जो अपने पुत्र की शिशु-क्रीड़ाएँ देखने से वंचित रही। मैं उसकी अपनी लीलाओं से उसे रेंगते हुए भी नहीं देख सकी। मैं उसे अपनी लीलाओं में रंगा हुआ भी नहीं देख सकी। हे संवरवल्लभे, तुम अतिशय पुण्यशालिनी हो, जो तुमने देवों के लिये भी दुर्लभ इस प्रद्युम्न को पाला । तुम नि:सन्देह ही मेरी आशा रूपी लता के लिए बाड़ी के समान हों, तुम ही मुझ दरिदिनी के लिये लक्ष्मी के समान हो। अपार दुःख रूपी समुद्र में पड़ी हुई मुझे डूबते से बचाने के लिये तुम ही नौका सिद्ध हुई हो। घत्ता--- इस प्रकार (कृष्ण एवं रूपिणी द्वारा) सुललित मधुर अक्षरों से संस्तुत होकर खेचर-मिथुन अपने-अपने गाँव को जाने के लिए तैयार हुए। रूपिणी वासुदेव के पुत्र ने भी अत्यन्त भावनापूर्वक उस मिथुन को प्रणाम किया।। 257||| प्रद्युम्न का विद्याधर-पुत्री रति के साथ बिवाह तभी कालसंवर ने कार्य की गति देखकर प्रद्युम्न सम्बन्धी चिरकालीन वृत्तान्त वार्ता (कृष्ण आदि उपस्थित सभी के लिये) इस प्रकार निवेदित की—“जहाँ-जहाँ तुम्हारा मन्दन गया वहाँ-वहाँ घोड़े, हाथी पाये । जहाँ-जहाँ तुम्हार नन्दन गया, वहाँ-वहाँ पृथिवी पर ध्वजा सहित रथ उपस्थित रहे। जहाँ-जहाँ तुम्हारा नन्दन गया, वहाँ-वहाँ उसने मणि-रत्न पाये। जहाँ-जहाँ तुम्हारा नन्दन गया, वहाँ-वहाँ उसने उत्तम शय्या, आसन प्राप्त किये। पृथिवी पर जहाँ-जहाँ तुम्हारा नन्दन गया, वहाँ-वहाँ उसने ऋद्धि पायी। जहाँ तुम्हारा नन्दन है, वहाँ निस्सन्देह ही जयलक्ष्मी एवं सिद्धि निवास करती है। इसकी बार-बार कितनी स्तुति की जाये? जो कुछ इसे सम्भव (1) (3) वाष्ट्रि। 16) समुद्रे। Cril) कथिता। (2) जयति लक्ष्मी। (2) 1-2. अ. x।
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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