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________________ 2781 5 10 वि चउदहमी संधी (1) ध्रुवकं— कुसुमसर किति आयडियउ () आयउ सभज्ज सुव रई सहिउ ते स-तण (2) स-वंध स-सहोयर इस्वरिय यि मंदिरे कन्हइँ दिण्णासण- णिवसण-भूलण सय हय-गय- कोसु - देसु तहो ढोगउ तुहु-महु परम बंधु तुहुँ सहयरु सुव णत्तणे तुहु थिउ एक्कलउ कणयमाल-भीसम पहु जायहिं पणमिय चलण-कमल रूवाए (4) कह ताम पपइ महुमह पणइणि कणयमाल संवरेण समाणउँ । मारववेउ णामु खगरणिउ । । छ । । स- बल स - वाह। सयलुज्जोयर । सुवण-वयण- दंसण णि तहाँ । पाहुण यह पावित्ति सयल विकिय । वार - वार संवर पोमाइउ । सुव - विजय दुह महणसु सुहयरु । पइँ मुवि को तिहुवणे भल्लउ । मिलिय स सुव दंसणे सुछायहिँ । वण देवियमि वणदेवय जह। मज्झु जि तुहुमि भाइ चिंतामणि । [14.1.1 चौदहवीं सन्धि (1) प्रद्युम्न का यश सुनकर कनकमाला अपने पति के साथ उसे देखने पहुँची । कृष्ण एवं रूपिणी ने उनका बड़ा सम्मान किया ध्रुवक- कुसुमशर की कीर्ति से आकर्षित होकर कनकमाला भी कालसंवर के साथ आ गयी । मरुद्वेग नामक खगराज भी अपनी पत्नी एवं रति नाम की पुत्री के साथ वहाँ आ गया । । छ । । सुन्दर गात्र वाले अपने पुत्र – प्रद्युम्न के दर्शनों के लिए अत्यन्त उत्सुक उस कृष्ण ने भी पुत्रों, बान्धवों, सहोदरों, सेना, वाहनों तथा समस्त उद्योतक सेवकों सहित उन सबको अपने भवन में प्रवेश कराया तथा उन्हें स्वयं ही आसन एवं सैकड़ों प्रकार के वस्त्राभूषण प्रदान किये। ( आगत - ) सभी लोगों ने पाहुन जैसी प्रवृत्ति की ( अर्थात् भेंट के लिए आते समय अनेक प्रकार के उपहार साथ में लाये ) राजा कालसंवर ( विद्याधर ) भी घोड़ा, हाथी, कोष (उपहार स्वरूप) लेकर आया और प्रदान कर बार-बार प्रमुदित हुआ । (यह सब देखकर कृष्ण ने भावाभिवेश में भरकर उस कालसंवर से कहा --- ) "तुम ही मेरे परम बन्धु हो, तुम्हीं मेरे सहचर हो, पुत्र-वियोग के महान् दुख का अनुभव करने वाले तुम ही मेरे शुभकारी हो । पुत्र के नर्तन में (बाल- लीला) में अकेले तुम ही ( उसके रक्षक ) थे। तुम्हें छोड़कर त्रिभुवन में और कौन इतना भला हो सकता है? कनकमाला पुत्र-दर्शन के उत्साह से युक्त भीष्म-पुत्री – रूपिणी से मिली और उसने रूपिणी के चरण कमलों में प्रणाम किया। किस प्रकार ? जिस प्रकार कि वनदेव, वनदेवी के चरण कमलों में प्रणाम करता है। यह देखकर मधुमथन की प्रणयिनी (1) (3) अकर्तित। (2) पुत्र पुण्यासह (3) मन्या | (4) निगा ।
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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