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महाकद सिंह विर पाजण्णचरिज
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इय पक्षुण्ण कहाए पयड़िय धम्मत्थ-काम मोक्खाए बुह रल्हण सुव कइसीह विरइयाए । पज्जुण्ण-वासुएउ-बलहद्द मेलाबउ णाम तेरसमी संधी परिस्मत्तो।। संधी: 13।। छ।।
पृप्फिया छंदोऽलंकृति लक्षणं न पठितं नानादित्तागमो। जातं हंत न कर्ण-गोचर-चरं साहित्य-नामाथि च।। सिंहः सत्काविरग्रणी: सम्भवत्प्राप्य प्रसादं पर। वाग्देव्या: सुकवित्व जातथ जमा मान्यो मनस्वि प्रियः ।।
___ इस प्रकार धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को प्रकट करने वाली बुध रल्हण के पुत्र कवि सिंह द्वारा विरचित प्रद्युम्न-कथा में प्रद्युम्न, वासुदेव एवं बलभद्र के मिलन का वर्णन करने वाली तेरहवीं सन्धि समाप्त हुई।। सन्धि: 13 ।। छ।।
पुष्पिका – कवि-परिचय न तो मैंने छन्द, अलंकार सम्बन्धी लक्षण ग्रन्थ ही पढ़े हैं और न तर्क एवं आगम ग्रन्थ ही सुने हैं। मुझे अत्यन्त दुःख है कि साहित्य नामकी भी कोई वस्तु है, यह भी मुझे कर्णगोचर नहीं हुआ; किन्तु वाग्देवी के श्रेष्ठ प्रसाद (वरदान) को प्राप्त करके ही यह कवि-सिंह कवियों में अग्रणी बन सका है तथा सुकवियों में मनस्वी प्रिय एवं सभी के मध्य सम्मान को प्राप्त हुआ।