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________________ महाकद सिंह विर पाजण्णचरिज [277 इय पक्षुण्ण कहाए पयड़िय धम्मत्थ-काम मोक्खाए बुह रल्हण सुव कइसीह विरइयाए । पज्जुण्ण-वासुएउ-बलहद्द मेलाबउ णाम तेरसमी संधी परिस्मत्तो।। संधी: 13।। छ।। पृप्फिया छंदोऽलंकृति लक्षणं न पठितं नानादित्तागमो। जातं हंत न कर्ण-गोचर-चरं साहित्य-नामाथि च।। सिंहः सत्काविरग्रणी: सम्भवत्प्राप्य प्रसादं पर। वाग्देव्या: सुकवित्व जातथ जमा मान्यो मनस्वि प्रियः ।। ___ इस प्रकार धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को प्रकट करने वाली बुध रल्हण के पुत्र कवि सिंह द्वारा विरचित प्रद्युम्न-कथा में प्रद्युम्न, वासुदेव एवं बलभद्र के मिलन का वर्णन करने वाली तेरहवीं सन्धि समाप्त हुई।। सन्धि: 13 ।। छ।। पुष्पिका – कवि-परिचय न तो मैंने छन्द, अलंकार सम्बन्धी लक्षण ग्रन्थ ही पढ़े हैं और न तर्क एवं आगम ग्रन्थ ही सुने हैं। मुझे अत्यन्त दुःख है कि साहित्य नामकी भी कोई वस्तु है, यह भी मुझे कर्णगोचर नहीं हुआ; किन्तु वाग्देवी के श्रेष्ठ प्रसाद (वरदान) को प्राप्त करके ही यह कवि-सिंह कवियों में अग्रणी बन सका है तथा सुकवियों में मनस्वी प्रिय एवं सभी के मध्य सम्मान को प्राप्त हुआ।
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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