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________________ 276] महापड सिंह विटर पज्जृण्णचरित [13.17.5 इस पउर जणु परोप्यरु भासइँ भुविए बड्दु पहा उ ण दीसइ। किर उप्पण्णु हरिउ ता असुरें पुब्बवइ रमणे वडिय सरें। लेविणु तक्खय गिरितले गिहियउ । तहि खगवइ कहि णिय पिय सहियउ। 'वा कीलएं गए वालु विलक्खिः । विण्णु सकतहे सुंदर अक्खिउ। धरण सुवण्ग-माल संकर का अहि... ही मंदिरे र गमा पुण्णाहिउ वि छइल्लु वलुद्धर विरभवे चिण्णु सु तउ कि दुद्धरु । तहो माहप्पएण सं जायउ दोभड धड विहु णिय कायउ। जो पच्चक्खु होबि घणु धारउ भुवणत्तय तु पवढिय गारउ। अइ-सकिरस्थ अज्जु भीसन-सुव पउमण ण मालइ माला भुव । किं वण्णनि हरि उएणय मण्णउ जसु एहर णंदन उप्पण्णउ। थुव्वंतुवि जण ज्य घोल! णिय मंदिरे पइल संतोस।। अहिसिंचिवि आहरणहिँ अंचिउ सरणोहु वि सभिच्चु रोमंचिउ। पत्त.- जुवराय पट्टु सिरे वद्ध तहो रेहइ रूविणि तणउ कह। कण्यासणे आलीणु कणादगिरिहि पं सीहु जह ।। 256 ।। इसी प्रकार पौरजन भी परस्पर में कह रहे थे कि भुबन में ऐसा प्रताप याला अन्य कोई दिखारी नहीं देता। इसके उत्पन्न होते ही मन में पूर्व-बैर के बढ़ते हुए प्रसार के कारण असुर ने इसका अपहरण कर लिया था और उसे लेकर तक्षकगिरि के नीचे रख दिया था। तभी कहीं से एक खगपति वनक्रीड़ा के लिये अपनी प्रिया सहित वहाँ आया, और उसने उस बालक को देखा तथा उस सुन्दर बालक को (उठाकर) अपनी कान्ता को दे दिया। कालसंवर राजा की वह रानी स्वर्णमाला (कचनमाला) धन्य है, जिसके भवन में रहकर यह मन्मथ बड़ा हुआ था। वह मन्मथ महान् गुज्यबाला चतुर एवं बल से उत्कृष्ट है। पूर्वभव में इसने दुर्धर तप किया होगा. उसीके माहात्म्य से अत्यन्त रूपवान तथा दर्मेद्भट -समूह को धुन देने वाला हुअ। उसीके प्रभाव से वह प्रत्यक्ष ही धनुषधारी भी हुआ. जितका गौरव तीन लोकों में बढ़ गया है। भीष्मपुत्री कमलमुखी रूपिणी भी आज अत्यन्त कृतार्थ है, जो कृष्ण के लिए मालती की माला के स्मन बन गयी है। और (कवि कहता है कि....) हरि-कृष्ण के उन्नत मान का क्या वर्णन करूं? जिसका प्रद्युम्न जैसा (सुन्दर) पुत्र उत्पन्न हुआ है। इस प्रकार लेगों द्वारा संस्तुत जयदोष पूर्वक वह कृष्ण प्रद्युम्न के साथ सन्तोष पूर्वक अपने भवन में प्रविष्ट हुआ। स्वजनों एवं सेवकों को रोमांचित करने वाले आभूषणों से अंचित कर उसका अभिषोक किया गया तथा-... छत्रप..... उसके सिर पर युवराज चट्ट बाँधा गया। तब सुवर्णसन पर बैठा हुआ रू.पणी का वह पुत्र किरा प्रकार सुशोभित हुआ? उसी प्रकार जिस प्रकार सुवर्णगिरि (सुमेरु) पर बैठा हुआ सिंह सुशोभित होता है।। 256।। (13) | ब " | 2-3. अ. कील(हें बिकरते मैक्सिज । 4. ।
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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