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महाकदार पन्जुग्णपारेउ
युग-प्रवर्तनकारी परिस्थितियों के बीच में सम्पन्न किया जाता है ।।
महाकाव्य के इन लक्षणों के आलोक में प्रस्तुत "पज्जुण्णचरिउ" महाकाव्य की कसौटी पर खरा उतरता है। इसमें महाकाव्य के उपर्युक्त प्राय: सभी लक्षण वर्तमान हैं। चूँकि अपभ्रंश में सर्ग के स्थान पर सन्धि का प्रयोग होता है, अत: वह सर्गबद्ध न होकर सन्धि-बद्ध है तथा उसकी कथावस्तु 15 सन्धियों में विस्तृत है। कथावस्तु पुराण-प्रसिद्ध है। इसमें शृंगार, वीर और करुण रस अंग रूप में और शान्तरस अंगी के रूप में प्रस्तुत है । वस्तु व्यापारों में नगर, समुद्र, पर्वत, नदी, सूर्योदय, सूर्यास्त, चन्द्रोदय, उपवन, सैनिक-प्रयाण, युद्ध, विजय, स्वयंवर, दूत-प्रेषण आदि के सुन्दर चित्रण है। कथावस्तु की दीर्घता के साथ-साथ उसमें महा-काव्योचित भावों की बहुलता एवं गम्भीरता भी पाई जाती है। इसका नायक 169 पुराण पुरुषों में से एक है। वह अतिशय पुण्यवान् एवं अनेक कलाओं का स्वामी है। जैन परम्परा के अनुसार वह 21वें कामदेव के रूप में प्रसिद्ध है। इस महाकाव्य में प्रतिनायक का अभाव है। यद्यपि प्रद्युम्न का संघर्ष कालसंबर एवं कृष्ण के साथ होता है, किन्तु वे खलनायक नहीं हैं। क्योंकि खलनायक का कार्य सर्वत्र नायक को परेशान करना होता है और इस कारण पाठकों के हृदय में उसके प्रति कोई सहानुभूति नहीं रहती। प्रस्तुत काव्य में ऐसा कोई पात्र नहीं है, जिससे प्रद्युम्न का सदैव विरोध रहा हो। अत: इस काव्य-ग्रन्थ में प्रतिनायक का अभाव है। संक्षेप में कहा जा सकता है कि प्रस्तुत काव्य में महाकाव्य के इतिवृत्त, वस्तुव्यापार-वर्णन, संवाद, भावाभिव्यंजना आदि सभी अवयव अपने सन्तुलित रूप में विद्य
(2) वस्तु-व्यापार-वर्णन
कवि ने प०च० में प्रसंग प्राप्त द्वीप, देश, नगर, नदी, पर्वत, समुद्र, उपवन, अटवी एवं गड्ऋतु आदि के वर्णन बड़ी ही आलंकारिक शैली में किये हैं। उदाहरणार्थ कुछ वर्णन यहाँ प्रस्तुत किए जा रहे हैं
(क) देश वर्णन:-सौरराष्ट्र देश प्राचीन-साहित्य एवं संस्कृति का प्राण रहा है। वैदिक, बौद्ध एवं जैन-साहित्य में उसके श्री-सौन्दर्य का वर्णन प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। कवि सिंह ने भी उसके अन्तर्बाह्य-सौन्दर्य एवं श्री-समृद्धि का विशद वर्णन किया है। उसके अनुसार सौराष्ट्र-देश प्राकृतिक-शोभा और श्री-समृद्धि से परिपूर्ण है। पथिक-जन अपने साथ इस प्रदेश में भोजन-सामग्री लेकर नहीं चलते। राजमार्गों के दोनों पार्यों पर स्थित फलों की लम्बी पंक्तियाँ स्वयमेव उनके लिए यथेष्ट पाथेय प्रदान करती हैं। द्राक्षारस से युक्त मंडप-स्थान जगह-जगह पर पथिकों की तृषा को शान्त करते हैं दि० 1/6/11-12)। वहाँ की नारियॉ दूध एवं शक्कर से युक्त भोजन पथिकों को कराती रहती हैं (दे० 1/7/11-12)।
(ख) नगर वर्णन:-कवि ने दारामई (द्वारावती अथवा वर्तमान द्वारिका 1/9, 1/10), कुण्डिनपुर (2/1/10), पुण्डरीकिणी (4/10/9, 14/9/10), कोशल (5105), अयोध्या (5/11/5) आदि नगरों की समृद्धि का वर्णन किया है, जिसमें दारामइ नगर का वर्णन विस्तार से उपलब्ध होता है। कवि ने उसमें नगर की बाह्यान्तर-रचना के साथ-साथ वहाँ के नागरिकों के सुखद-जीवन का आकर्षक वर्णन किया है, साथ ही, वहाँ के लोगों के धार्मिक एवं वाणिज्य सम्बन्धी कार्यो का भी मनोहारी वर्णन प्रस्तुत किया है (1/9/2, 1/104)। पञ्च० के अनुसार दारामइ नगर में अत्यन्त सुन्दर सौधतल थे, जिन पर लहराती ध्वजाएँ स्वर्ग को स्पर्श करती थीं। प्राकार के चारों ओर चार गोपुर थे। स्थान-स्थान पर कल्पवृक्षों के समान सुन्दर और सरस फल लगे थे। उसके प्रत्येक
1. काव्यादर्श 21