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________________ प्रस्तावना [39 विस्तृत समवशरण की रचना की। उन्हीं नेमिप्रभु के समवशरण में त्रिखण्ड धिपति कृष्ण समस्त परिवार तथा सैन्य एवं दस-दसार राजाओं के साथ दर्शनार्थ आये एवं उनका धर्मोपदेश सुनकर द्वारिका वापस लौट आये ( 10-12 ) । मित्रभु समवशरण सहित विहार करते हुए उपदेश करने लगे। जब पुनः नेमिप्रभु द्वारका आये तब श्रीकृष्ण पुनः उनके समवशरण में पहुँचे । उन केवलज्ञानी प्रभु ने धर्म, जीव, एवं संसार की नश्वरता आदि पर अमृतमय उपदेश दिये, साथ ही हलधर ( बलभद्र ), हरि (कृष्ण) के पूर्वभवों के वर्णन भी किये और भविष्यवाणी की कि मदिरापान से सारा देश विनाश को प्राप्त होगा द्वीपायन मुनि के कोप से समस्त दारामई जलकर नष्ट हो जाएगी एवं जरदकुमार के हाथों से कृष्ण की मृत्यु होगी। यह सुनकर प्रद्युम्न को वैराग्य हो गया और उसने दीक्षा धारण करने की श्रीकृष्ण एवं रूपिणी से आज्ञा भाँगी, जिसके कारण रूपिणी विलाप करने लगी एवं मुरारी (श्री कृष्ण) तथा राम ( बलभद्र ) शोकाकूल हो गये ( 13-20)। किन्तु इन्द्र ने अपनी मधुर वाणी में रूपिणी को सान्त्वना दी। तत्पश्चात् प्रद्युम्न ने दीक्षा धारण की। उसके साथ ही शम्भु, भानु, सुभानु, अनिरुद्ध आदि ने भी दीक्षा ग्रहण की। इनके दुख से विह्वल होकर रूपिणी एवं सत्यभामा के साथ राजमहल की अनेक महारानियों ने भी आर्यिका के व्रत ग्रहण किये ( 21-22 ) । प्रद्युम्न ने घोर तपश्चरण किया। गुणस्थान का आरोहण कर कर्म-प्रकृतियों को नष्ट कर केवलज्ञान प्राप्त किया, तत्पश्चात् अघातिया कर्मों को नष्ट कर निर्वाण लाभ किया ( 23-27, पन्द्रहवीं सन्धि ) | (3) पज्जुण्णचरिउ एवं अन्य प्रद्युम्नचरितों में विवेचित प्रद्युम्न - चरित के साम्य वैषम्य का संक्षिप्त तुलनात्मक मानचित्र यह पूर्व में चर्चा की जा चुकी है कि प्रद्युम्न महाभारत का एक प्रमुख पात्र है। वैदिक एवं जैन परम्परा के कवियों ने उसके चरित को अपने-अपने दृष्टिकोणों से विकसित किया है। कुल परम्परा एवं कुछ प्रमुख घटनाओं की दृष्टि से यद्यपि दोनों के कथानक प्राय: एक समान हैं, फिर भी घटनाक्रमों में कहीं-कहीं पर्याप्त अन्तर आ गया है। उनके घटनाक्रमों का तुलनात्मक चित्र इसी ग्रन्थ के अन्तिम पृष्ठों पर परिशिष्ट के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। (4) पज्जुण्णचरिउ : काव्यशास्त्रीय अध्ययन (1) महाकाव्यत्व महाकवि दण्डी ने महाकाव्य के तत्वों का निर्देश करते हुए उसमें निम्न लक्षणों को आवश्यक माना है.(I) सर्ग बन्धता, ( 2 ) आशीर्वचन (3) मंगलाचरण, ( 4 ) सज्जन संकीर्तन एवं दुर्जन- निन्दा, ( 5 ) नायक के समग्र जीवन का निरूपण ( 6 ) उदात्त - गुणों से युक्त ऐतिहासिक एवं पौराणिक नायक का चित्रण ( 7 ) श्रृंगार, वीर तथा शान्त इन तीन रसों में से किसी एक का अंगीरस रूप में तथा अन्य रसों का सहायक के रूप में निरूपण, (8) एक सर्ग में एक ही प्रकार के छन्द का होना, किन्तु अन्त में छन्द-परिवर्तन तथा अन्तिम छन्द में ही आगामी कथा वस्तु की सूचना (9) कथावस्तु की उत्कर्षता एवं घटना-वैविध्य हेतु प्रासंगिक कथाओं का नियोजन (10) सागर, सरिता, नगर- यात्रा, सन्ध्या, सूर्योदय, षड्ॠतु आदि के वर्णन, ( 11 ) महाकाव्य में विविधता और यथार्थता, इन दोनों के ही सन्तुलित रूप, ( 12 ) महाकाव्य में विविधता और यथार्थ । ( 13 ) महदुद्देश्यता, ( 14 ) चतुर्वर्ग प्राप्ति कामना तथा ( 15 ) संघर्ष, साधना, चरित्र विकास आदि का रहना अनिवार्य होता है। महाकाव्य का निर्माण
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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