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________________ 38] मलाकर सिंह विरइ पजुपणचरि प्रद्युम्न को वापिस कर दी। उधर श्रीकृष्ण का आदेश पाते ही सत्यभामा उनके पास पहुँची और कुछ दिन उनके साथ रह कर वापिस लौट आयी ( 13-14 ) । योग्य समय पर दोनों रानियों (जाम्बवती एवं सत्यभामा ) को पुत्रों की प्राप्ति हुई । जाम्बवती के पुत्र का नाम शम्बुकुमार एवं सत्यभामा के पुत्र का सुभानु रखा गया। बड़े होने पर दोनों पुत्रों ने धूत - विधि आरम्भ की। शम्बुकुमार ने उसी प्रसंग में सुभानु से एक कोटि स्वर्ण मुद्राएँ जीत लीं। अपने पुत्र की पराजय देखकर सत्यभामा ने द्यूत - विधि में एक मुर्गा भेजकर दो करोड़ स्वर्ण मुद्राओं की बाजी लगायी। किन्तु शम्बुकुमार ने प्रद्युम्न की सहायता से उसे भी जीत लिया। तत्पश्चात् सत्यभामा ने सुगन्धित फल भेजा। उसे भी जीत लिया गया, साथ ही चार करोड़ स्वर्ण मुद्राएँ भी इस प्रकार शम्बुकुमार ने आठ, सोलह बत्तीस, चौंसठ एवं 128 करोड़ स्वर्ण मुद्राएँ जीत लीं । अन्त में सत्यभामा ने 256 करोड़ स्वर्ण मुद्राओं की शर्त लगा कर एक मायामयी सेना भेज कर शम्बुकुमार को यह कहलवाया कि वह इसे भी जीत कर दिखाये । प्रद्युम्न के विद्याबल की सहायता से शम्बुकुमार ने उसे भी जीत लिया और जीता हुआ सार धन तत्काल ही उसने माचकों को बाँट दिया (15-18) | सत्यभामा ने दुखी होकर तडितवेग नामक विद्याधर – सेवक को अपने भाई चन्द्रोदर के पास भेजा । चन्द्रोदर की पत्नी का नाम शशिलेखा तथा पुत्री का नाम अनुन्धरी था। सुभानु से प्रभावित होकर चन्द्रोदर ने अपनी पुत्री अनुन्धरी का विवाह उसके साथ कर दिया। स्वर रूपे ने भी अपने पुत्र प्रद्युम्न एवं भतीजे शम्बुकुमार के विवाह के लिए अपने भाई रूपकुमार ( कुण्डिनपुर का राजा) के पास सन्देश भेजा। किन्तु उसका भाई इस तरह क्रोधित हो उठा जैसे " मीन राशि का शनीचर" रौद्र हो उठता है ( 19-21)। तब प्रद्युम्न और शम्बुकुमार स्वयं ही कुण्डिनपुर गये और वहाँ चाण्डाल एवं डोम का वेश बनाकर उन्होंने रूपकुमार से कन्या की माँग की, जिससे वहाँ के सभी लोग उनसे चिढ़ गए और उन्हें मारने दौड़े। किन्तु प्रद्युम्न ने अपने विद्या - बल से वहाँ के समस्त नर-नारियों को चाण्डाल - चाण्डाली बना दिया और वहाँ की समस्त पुत्रियों का अपहरण कर उन्हें दारामई ले आया, किन्तु साथ में ही अपने मामा रूपकुमार को भी बन्दी बनाकर लाना नहीं भूला (चौदहवीं सन्धि ) । प्रद्युम्न रूपकुमार को वैसे ही बाँध लाया जैसे रावण - पुत्र इन्द्रजीत ने पवनपुत्र (हनुमान) को बाँधा था । किन्तु कृष्ण और बलराम ने रूपकुमार को आदर-सम्मान देकर छोड़ दिया (1}। रूपकुमार अपनी बहन रूपिणी के चरण कमलों का स्पर्श कर अपनी नगरी को वापस लौट गया और प्रद्युम्न अपनी रानियों के साथ विभिन्न क्रीड़ाएँ एवं मनोविनोद करता हुआ अपना समय सुख-पूर्वक व्यतीत करने लगा । एक बार चैत्रमास के समान मुख वाला वह प्रद्युम्न फागुन मास के नन्दीश्वर पर्व पर कैलाशगिरि पर जिनवरों की वन्दना-पूजा करने हेतु गया। वहाँ उसने चौबीसों जिनेश्वरों की स्तुति कर 108 कलशों से प्रभु का अभिषेक किया एवं अक्षत, दीप लेकर पूजा की (2-8)। तत्पश्चात् श्रीकृष्ण नेमि प्रभु के दर्शनों को गये। वे नेमिप्रभु जिन्होंने महाभारत के युद्ध में अग्रणी रहने वाले जरासन्ध को मार कर अर्धचक्री पद प्राप्त करने वाले श्रीकृष्ण को अपने हाथ की छोटी अंगुली से भी तौल दिया था तथा पांचजन्य–शंख को उन्होंने सरलतापूर्वक तुरन्त ही बजा दिया था और जब उन्हीं नेमिप्रभु ने वैराग्य धारण किया, तब उनके साथ 1000 राजाओं ने भी दीक्षा ग्रहण की और वरदत्त राजा के यहाँ जिन्होंने सर्वप्रथम पारणा की थी, सभी प्रकार के तपों को करते हुए जब उन्हें केवलज्ञान की प्राप्ति हुई, तब देवताओं ने एक कलापूर्ण
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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